(अभिनेता बलराज साहनी ने यह कालजयी भाषण 1972 में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के दीक्षांत समारोह में दिया था।)
लगभग बीस साल पहले की बात है। कलकत्ता के ‘फिल्म जर्नलिस्ट एसोसिएशन’ की ओर से ‘दो बीघा जमीन’ फिल्म के निर्देशक बिमल रॉय और हमें यानी उनके साथियों को सम्मान दिया जा रहा था। ये एक साधारण पर रुचिकर समारोह था। बहुत अच्छे भाषण हुए, पर श्रोता बड़ी उत्सुकता के साथ बिमल रॉय को सुनने की प्रतीक्षा कर रहे थे। हम सब वहां फर्श पर बैठे थे, मैं बिमल दा के पास ही बैठा था और देख रहा था कि जैसे-जैसे उनके बोलने का समय आ रहा था कि उनकी बेचैनी बढ़ती जा रही थी। फिर जब उनकी बारी आई, वे उठे और हाथ जोड़कर सिर्फ इतना कहा, ‘जो कुछ कहना होता है मैं अपनी फिल्मों के माध्यम से कह देता हूं, मेरे पास कहने के लिए और कुछ नहीं है।’
इस समय मैं भी सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूं। अगर मैं इससे ज्यादा कहने का साहस कर पा रहा हूं, तो सिर्फ इसलिए कि जिस व्यक्ति के नाम पर आपकी यूनिवर्सिटी बनी है, उसके व्यक्तित्व से मुझे प्यार है। उतना ही प्यार और आदर, बल्कि उससे भी ज्यादा, आपकी यूनिवर्सिटी से जुड़े मेरे मन में पीसी जोशी के लिए है। मेरे जीवन के कुछ बेहद कीमती पल इनकी ही बदौलत हैं, कुछ ऐसे कर्ज़ भी हैं जिन्हें मैं कभी चुका नहीं सकता।
इसलिए आपकी संस्था की ओर से मिले किसी भी निमंत्रण को अस्वीकार नहीं कर सकता। अगर आप मुझे फर्श साफ करने के लिए भी बुलाते तब भी मैं उतना ही खुश और सम्मानित महसूस करता, जितना इस समय यहां खड़े होकर आपको संबोधित करने में महसूस कर रहा हूं। पर उस सेवा के लिए मैं शायद अधिक योग्य साबित होता।
कृपया मुझे गलत न समझें। मैं शिष्टता का दिखावा नहीं कर रहा हूं। जो बात मैंने कही है, वह दिल से कही है और अब आगे भी जो कहूंगा, दिल से ही कहूंगा, फिर चाहे वह आपको अच्छा लगे या न लगे, वह ऐसे मौकों के अनुकूल हो चाहे प्रतिकूल। शायद आप सब जानते होंगे कि शैक्षणिक वातावरण से मेरा संबंध लगभग 25 बरसों से टूटा हुआ है। मैंने कभी किसी विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह को भी संबोधित नहीं किया है।
वैसे यहां मैं ये भी जोड़ना चाहूंगा कि आपकी दुनिया से मेरा नाता टूटना ऐच्छिक नहीं था। इस दूरी के लिए कहीं न कहीं हमारे देश की फिल्म बनाने की दशा जिम्मेदार है। हमारी फिल्मी दुनिया में या तो अभिनेता को इतना कम काम मिलता है कि वह भूखों मरता है या फिर चाहे धन-दौलत की भूख हो या न हो, उसे इतना ज्यादा काम करना पड़ता है कि वह हर तरफ से कट जाता है। उसे न अपने पारिवारिक जीवन की सुध-बुध रहती है, न ही अपनी मानसिक और आत्मिक आवश्यकताओं की।
पिछले 25 वर्षों में मैंने लगभग सवा-सौ फिल्मों में काम किया है। इतने समय में अमेरिका या यूरोप में एक अभिनेता 30-35 फिल्मों में काम करता है। इससे आप खुद अंदाजा लगा सकते हैं मेरी ज़िंदगी का कितना बड़ा हिस्सा सेल्यूलॉयड की रीलों में दफन हुआ पड़ा है। इस अरसे में कितनी किताबें थीं, जो मैं नहीं पढ़ सका, कितने आयोजन थे जहां मैं जाना चाहता था पर जा नहीं सका।
कभी-कभी मैं खुद को बहुत पिछड़ा हुआ महसूस करता हूं और मेरी कुंठा तब और बढ़ जाती है जब मैं सोचता हूं कि इन सवा सौ फिल्मों में कितनी फिल्में महत्वपूर्ण होंगी? कितनी ऐसी फिल्में होंगी, जिन्हें याद रखा जाएगा? शायद बहुत कम, मुश्किल से एक ही हाथ की उंगलियों पर गिनने लायक। और उन्हें भी लोग या तो भूल गए हैं या जल्दी ही भूल जाएंगे।
इसीलिए मैंने कहा था कि मैं शिष्टता नहीं दिखा रहा हूं। मैं आपको सचेत करना चाहता हूं कि अगर मेरा भाषण खास विद्वता का सबूत न दे, तो आपको निराश न होकर मुझे माफ कर देना चाहिए। बिमल दा बिलकुल सही थे। एक कलाकार का क्षेत्र उसका काम ही होता है। इसीलिए मैं यहां जो कुछ कह रहा हूं, अपने जीवन के अपने अनुभव से ही कह रहा हूं, जो मैंने देखा-परखा-महसूस किया। उससे बाहर की बात करना बेवकूफी होगी, किसी दिखावे सरीखा होगा।
इस समय मुझे अपने विद्यार्थी जीवन की एक घटना याद आ रही है, जिसे मैं कभी भुला नहीं सका, जिसने मेरे मन पर बहुत गहरा असर डाला। मैं अपने परिवार के साथ गर्मियों की छुट्टियां मनाने रावलपिंडी से कश्मीर जा रहा था। पिछली रात भारी बारिश होने के कारण से रास्ते में पहाड़ का एक हिस्सा टूटकर गिर गया था जिसके कारण सड़क बंद हो गई थी।
दोनों तरफ मोटरों की लंबी कतारें लग गईं। न खाने-पीने का इंतजाम था, न सोने का। पीडब्ल्यूडी के कर्मचारी सड़क की मरम्मत करने में जी-तोड़ मेहनत कर रहे थे। फिर भी ड्राइवर और यात्री हर समय उनके पीछे पड़े रहते, उन्हें सुस्त और निकम्मा कह-कहकर कोसते रहते। इसमें काफी समय लगा। यहां तक कि आसपास के गांवों के लोग शहर के तौर-तरीकों वाले यात्रियों से उकता गए थे।
आखिरकर एक दिन रास्ता खुलने का एेलान हुआ और ड्राइवरों को हरी झंडी दिखा दी गई। पर तब एक अजीब-सी बात हुई। कोई भी ड्राइवर पहले अपनी गाड़ी बढ़ाने को तैयार ही नहीं था। न इस तरफ से और न ही उस तरफ से। सभी खड़े एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे। इसमें शक नहीं कि रास्ता कच्चा था और खतरनाक भी। एक तरफ पहाड़ था और दूसरी तरफ खाई व हिलोरे मारता झेलम दरिया। आधा घंटा बीत गया। कोई टस से मस न हुआ।
ये वही लोग थे जो कल तक पीडब्ल्यूडी के कर्मचारियों को आलस और अकर्मण्यता के लिए कोस रहे थे। इतने में पीछे से एक छोटी-सी हल्के रंग की स्पोर्ट्स कार आती दिखाई दी। एक अंग्रेज उसे चला रहा था। इतने सारे वाहनों और भीड़ को देखकर वह हैरान हुआ। मैं कोट-पतलून पहने जरा बन-ठनकर खड़ा था। उसने मुझसे पूछा, ‘क्या हुआ है?’ मैंने उसे सारी बात बताई, तो वह जोर से हंसा और उसी क्षण हार्न बजाता हुआ, बिना किसी डर के, कार चलाते हुए आगे बढ़ गया।
उसके बाद तो नजारा और भी देखने लायक था। कहां तो कोई माई का लाल गाड़ी स्टार्ट करने के लिए तैयार नहीं था, और अब वे हाॅर्न पर हाॅर्न बजाते हुए एक साथ वह हिस्सा पार करने लगे। इतनी भगदड़ मची कि रास्ता फिर काफी देर के लिए बंद हो गया। तब मैंने अपनी आंखों से प्रत्यक्ष देखा कि एक आज़ाद देश में पले-बढ़े आदमी और एक गुलाम देश में पले-बढ़े आदमी में क्या फर्क होता है।
आज़ाद आदमी के अंदर कुछ सोचने, फैसला करने और अपने फैसले पर अमल करने की दिलेरी होती है। गुलाम आदमी यह दिलेरी खो चुका होता है। वह हमेशा दूसरे के विचारों को अपनाता है, घिसे-पिटे रास्तों पर चलता है। इस सबक को मैंने अपनी ज़िंदगी का हिस्सा बना लिया था। अपने जीवन में जब भी मैं कोई कठिन निर्णय ले पाया, मैं बहुत खुश हुआ। मैं खुद को आज़ाद महसूस करता, मुझे जीवन सार्थक लगा और मैं जीवन का लुत्फ शायद इसीलिए उठा पाया क्योंकि मैंने समझा की जीवन का कुछ अर्थ है।
पर फिर भी साफ-साफ कहूं तो ऐसे मौके बहुत कम आए। किसी कठिन निर्णय के समय मैं हिम्मत खो देता था और दूसरे लोगों के आसरे रहता। मैंने सुरक्षित रास्ता चुना। मैंने वही फैसले लिए जो मेरा परिवार मुझसे चाहता था, जो वो बुर्जुआ वर्ग चाहता था, जिससे मैं आता हूं। मेरे ऊपर मूल्यों का एक बोझ-सा डाल दिया गया था। मैं सोचता कुछ और था और कुछ और ही करता था। इस कारण मुझे बाद में काफी बुरा भी लगता। मेरे कुछ निर्णयों से मुझे कभी खुशी नहीं मिली। जब कभी भी मैं हिम्मत हार जाता, मेरी ज़िंदगी मुझे एक निरर्थक बोझ लगने लगती।
मैंने अपने सामने एक अंग्रेज का उदाहरण रखा है। कोई ये सोच सकता है कि किसी हद तक यह भी मेरे हीनभाव का सबूत है। मैं सरदार भगत सिंह का उदाहरण दे सकता था, जो उसी जमाने में ही फांसी चढ़े थे। मैं महात्मा गांधी का उदाहरण दे सकता था, जिन्होंने पूरा जीवन अपनी ही शर्तों पर जिया। मुझे याद है कि कैसे मेरे कॉलेज के प्रोफेसर, शहर के सम्मानीय और बुद्धिमान व्यक्ति गांधी की बातों पर हंसा करते थे कि वह बिना हथियार के सिर्फ सत्य-अहिंसा से अंग्रेज सरकार को हरा देंगे और देश को आज़ाद करा लेंगे।
मेरे शहर के शायद एक प्रतिशत से भी कम लोग ये सपने में भी नहीं सोच सकते थे कि अपने जीवनकाल में वे देश को आज़ाद हुआ देख सकेंगे। पर गांधीजी को खुद पर, अपने विचारों और अपने देशवासियों पर भरोसा था। शायद आपमें से किसी ने नंदलाल बोस द्वारा चित्रित गांधीजी का चित्र देखा होगा। वह एक ऐसे व्यक्ति का चित्र है, जिसमें सोचने का साहस था और उस सोच पर अमल करने की हिम्मत थी।
मेरे कॉलेज के समय मुझ पर भगत सिंह या गांधीजी का प्रभाव नहीं था। मैं पंजाब प्रांत के लाहौर में स्थित प्रसिद्ध गवर्नमेंट कॉलेज से अंग्रेजी साहित्य में एमए कर रहा था। इस कॉलेज में सिर्फ सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थियों का चयन होता है। आज़ादी के बाद मेरे साथियों ने हिंदुस्तान और पाकिस्तान की सरकारों और समाज में काफी ऊंचे पद हासिल किए। पर उस समय कॉलेज में दाखिला लेते समय हमें लिखकर देना पड़ता था कि हम राजनीतिक आंदोलनों में हिस्सा नहीं लेंगे। उस समय राजनीतिक आंदोलन का मतलब देश में चल रहे आज़ादी के आंदोलन से था।
आज हमारे देश को आज़ाद हुए पच्चीस साल हो गए हैं। इस साल हम आज़ादी की रजत जयंती मना रहे हैं। पर क्या हम कह सकते हैं कि गुलामी और हीनता का भाव हमारे मन से बिल्कुल दूर हो चुका है? क्या हम दावा कर सकते हैं कि व्यक्तिगत, सामाजिक या राष्ट्रीय स्तर पर हमारे विचार, हमारे फैसले और हमारे काम मूलतः हमारे अपने हैं और हमने दूसरों की नकल करनी छोड़ दी है? क्या हम स्वयं अपने लिए फैसले लेकर उन पर अमल कर सकते हैं या फिर हम यूं ही इस नकली स्वतंत्रता का दिखावा करते रहेंगे?
इस बारे में तो मैं आपका ध्यान हमारी फिल्म इंडस्ट्री की तरफ ले जाना चाहूंगा, जहां से मैं आता हूं। मैं जानता हूं कि उनमें से ज्यादा फिल्में ऐसी हैं, जिनका जिक्र सुनकर ही आप हंस पड़ेंगे।
एक पढ़े-लिखे बुद्धिमान आदमी के लिए हमारी फिल्मेंं तमाशे से ज्यादा कुछ नहीं हैं। उनकी कहानियां बचकानी, असलियत से दूर और तर्कहीन होती हैं। और ये बात तो आप भी मानेंगे की सबसे बड़ी खराबी है कि उनकी कहानी, तकनीक और नाच-गाने तक पश्चिम की फिल्मों की अंधी नकल होते हैं। कई बार तो पूरी की पूरी फिल्म ही किसी विदेशी फिल्म की नकल होती है। कोई हैरानी की बात नहीं है कि आप नौजवान लोग इन फिल्मों पर हंसते हैं, पर साथ ही कुछ ऐसे भी हैं जो फिल्म-स्टार बनने के सपने भी देखते होंगे।
हालांकि मेरे लिए उनका मजाक उड़ाना आसान नहीं है। मैं उनसे अपनी रोजी कमाता हूं। मैंने उनसे खूब पैसा और मशहूरियत हासिल की। आज मुझे यहां जो इज्जत दी जा रही है, उसके पीछे कुछ हद तक मेरी फिल्मी मशहूरियत ही है। जब मैं आपकी तरह विद्यार्थी था, तो हमारे अंग्रेज और हिंदुस्तानी प्रोफेसर बड़ी कोशिशों से हमारे अंदर यह एहसास पैदा करना चाहते थे कि कला का सृजन करना सिर्फ गोरी चमड़ी वालों का ही विशेषाधिकार है।
अच्छी फिल्में, अच्छे नाटक, अच्छा अभिनय, अच्छी चित्रकला आदि सब यूरोप और अमेरिका में ही संभव हैं। हिंदुस्तान के लोग, भाषा, संस्कृति इन कलात्मक भावनाओं के लिहाज से अपरिष्कृत और पिछड़े हुए हैं। ये सब सुनकर हमे बुरा लगता और हम गुस्सा भी हो जाते पर अंदर से हम ये बात मानने को मजबूर थे।
पर उस जमाने और आज के जमाने में बहुत फर्क है। आज़ादी के बाद भारतीय कलाओं ने बहुत प्रगति की है। फिल्मों की बात करें तो सत्यजीत रे और बिमल रॉय ऐसे नाम हैं जो विश्व प्रसिद्ध हो चुके हैं। कई कलाकारों और टेकनीशियनों की तुलना अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर होती है। आज़ादी से पहले हमारे देश में मुश्किल से 10-15 फिल्में ही बनती थीं, जो मशहूर होती थीं। आज हम संसार भर में सबसे ज्यादा फिल्में बनाने वाला देश हैं। और इन फिल्मों को सिर्फ हमारे देश की जनता ही नहीं, बल्कि अफगानिस्तान, ईरान, पूर्वी सोवियत यूनियन, मिस्र, अरब, अफ्रीका के अनेक देशों की जनता भी बड़े शौक से देखती है। हमने इस क्षेत्र में हॉलीवुड द्वारा लाई गई एकरसता को तोड़ा है।
और अगर सामाजिक जिम्मेदारी के नजरिये से भी देखा जाए तो हमारी फिल्में नैतिक रूप से अभी उतने निचले स्तर पर नहीं पहुंची हैं जहां कुछ पश्चिमी देश पहुंच चुके हैं। हिंदुस्तानी निर्माताओं ने अभी लाभ कमाने के लिए सेक्स और अपराध का सहारा नहीं लिया है जैसा अमेरिकी निर्माता कई सालों से करते आ रहे हैं, बिना ये सोचे कि इससे वो देश में एक गंभीर सामाजिक समस्या को जन्म दे रहे हैं।
इस सबके बावजूद अगर कमी है तो सिर्फ एक बात की कि हम अभी भी नक्काल हैं। इसी एक गलती के कारण हम सभी बुद्धिजीवियों के मजाक का पात्र बनते हैं। हम विदेशों से उधार लिए गए, घिसे-पिटे फाॅर्मूले पर फिल्में बनाते हैं। हम में अपने देश के जीवन को अपने ढंग से पेश करने का साहस नहीं है।
यह बात मैं सिर्फ हिन्दी या तमिल फिल्मों के बारे में नहीं कह रहा हूं, ये शिकायत तथाकथित प्रगतिवादी और प्रयोगवादी फिल्मों से भी है, चाहे वो बंगाली में हों, हिन्दी में या मलयालम में। मैं सत्यजीत रे, मृणाल सेन, सुखदेव, बासु भट्टाचार्य या राजिंदर सिंह बेदी के काम का बड़ा प्रशंसक हूं। मैं जानता हूं कि वे बहुत ही काबिल और सम्माननीय हैं। मैं यह भी कहे बिना नहीं रह सकता कि इनकी फिल्मों पर इटली, फ्रांस, स्वीडन, पोलैंड और चेकोस्लोवाकिया के फैशन की गहरी छाप है। वे नया कदम जरूर उठाते हैं, पर दूसरों के बाद।
मेरा थोड़ा-बहुत संबंध साहित्य की दुनिया से भी है। यही हालत मैं वहां भी देखता हूं। यूरोपीय साहित्य का फैशन भी हमारे उपन्यासकारों, कहानी-लेखकों और कवियों पर झट हावी हो जाता है। अगर सोवियत यूनियन को छोड़ दें तो शायद पूरे यूरोप में कोई हिंदुस्तानी साहित्य के बारे जानता तक नहीं है। उदाहरण के लिए मैं अपने प्रांत पंजाब की ही बात करता हूं। मेरे पंजाब में युवा कवियों की नई पौध सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ इंकलाबी जज्बे से ओत-प्रोत है। इसमें भ्रष्टाचार, अन्याय, शोषण को हटाने और एक नई व्यवस्था बनाने की बात की गई है।
आप इसे नकार नहीं सकते क्योंकि हमें सामाजिक बदलाव की जरूरत है। इन कविताओं में बातें तो बहुत अच्छी कही गई हैं पर इनका स्वरूप देसी नहीं है। इस पर पश्चिम का प्रभाव है। वहीं की तरह ये मुक्त छंद में हैं, न ही कोई तुकांत है। यदि वहां के कवियों ने लय और छंद का प्रयोग नहीं किया है तो पंजाबी कवियों को भी यही करना है।
इसका परिणाम ये होता है कि ये इंकलाब एक छोटे से कागज पर ही रह जाता है, जिसकी तारीफ बस एक छोटे-से साहित्यिक समझ वाले समूह में हो जाती है पर वो किसान और मजदूर जो इस शोषण को झेल रहे हैं, जिन्हें वे इंकलाब की प्रेरणा देना चाहते हैं, इसे समझ ही नहीं पाते हैं। ये उन पर कोई असर नहीं डालती। अगर मैं ये कहूं कि बाकी हिंदुस्तानी भाषाएं भी इसी ‘न्यू वेव’ कविताओं के प्रभाव में हैं, तो गलत नहीं होगा।
मुझे चित्रकला के बारे में कोई ज्ञान नहीं है, पर इतना जरूर जानता हूं कि वहां भी पश्चिम के फैशन का ही बोलबाला है। इस प्रभाव से बचकर अलग राह पर चलने की हिम्मत शायद ही कोई चित्रकार कर सकता है। और शैक्षणिक संसार के बारे में क्या कहूं? मैं आपको खुद इसे पढ़ने के लिए कहूंगा। अगर आप हिन्दी फिल्मों पर हंसते हैं तो शायद खुद पर भी हंसना चाहेंगे।
इस साल मेरी मातृभूमि पंजाब में मुझे गुरुनानक विश्वविद्यालय के सीनेट का सदस्य बनाने के लिए नामित किया गया। जब मुझे उसकी पहली मीटिंग में शामिल होने के लिए बुलाया गया, तो मैं पंजाब में ही प्रीत नगर के पास था। एक दिन शाम को अपने ग्रामीण दोस्तों से गपशप करते हुए मैंने अमृतसर में होने वाली सीनेट की मीटिंग में जाने का जिक्र किया, तो किसी ने कहा, ‘हमारे साथ तो आप तहमत (लुंगी) और कुर्ते में हमारे जैसे ही बने फिरते हो, वहां जाकर सूट-बूट पहनकर साहब बहादुर बन जाओगे।’
मैंने हंसते हुए कहा, क्यों! आप अगर चाहते हैं तो मैं ऐसे ही चला जाऊंगा।’ तभी दूसरा कोई बोला, ‘आप ऐसा कर ही नहीं सकते, हमारे इन सरपंच को ही लीजिए। शहर में इन्हें किसी छोटे-मोटे काम से सरकारी दफ्तर जाना हो, तो तहमत की जगह पाजामा पहनते हैं। कहते हैं कि तहमत पहनने पर इज्जत नहीं होती। और आप तो यूनिवर्सिटी में जा रहे हैं।’
एक और फौजी किसान, जो उस समय छुट्टी पर आया हुआ था, कहने लगा, ‘अजीब बात है, आजकल तो शहरों की लड़कियां भी तहमत बांधती हैं, तो फिर इनकी इज्जत क्यों नहीं होगी?’
ये सब गपशप होती रही और मुझे ये चुनौती स्वीकार करनी पड़ी। मैं अगले दिन सचमुच तहमत-कुर्ते में सीनेट की मीटिंग में पहुंच गया और मुझे उम्मीद नहीं थी कि इससे वहां क्या खलबली मची। वहां पहुंचा तो बरामदे में गाउन पहनाने के लिए एक प्रोफेसर खड़े थे। पहली नजर में तो उन्होंने मुझे पहचाना ही नहीं। फिर, जब पहचाना तो हैरानी भरी नजर से मुझे सिर से पांव तक देखने लगे।
आखिर गाउन पहनाते समय वे कहे बिना रह न सके, बोले, ‘साहनी साहब, तहमत बांधी है, तो बूट की जगह खुस्सा (जूती) पहननी चाहिए थी न।’ ‘अगली बार ख्याल रखूंगा’, मैंने क्षमा मांगने वाले स्वर में कहा और मीटिंग वाले कमरे में चला गया। पर तभी मुझे खयाल आया कि किसी के लिबास के बारे में आलोचना करना सभ्यता के नियमों के उलट समझा गया है। यह बात मैंने प्रोफेसर को क्यों नहीं कही! मुझे अपनी धीमी हाजिरजवाबी पर अफसोस हुआ।
मीटिंग के बाद यूनिवर्सिटी के लड़के-लड़कियों से मिलने पर भी मेरा लिबास उनके मनोरंजन की चीज बना रहा। उनके लिए हंसी की बात ये भी थी कि मैंने तहमत के साथ जूते पहन रखे थे। पर उन्हें इसमें कोई अजीब बात दिखाई नहीं दी कि कई लड़कों ने पतलून के साथ चप्पल पहनी हुई थी।
आपको लग रहा होगा कि ये छोटी-सी घटना बताकर मैं आपका समय क्यों खराब कर रहा हूं! पर एक पंजाबी किसान के नजरिये से इसे देखिए। हरित क्रांति में उनके सहयोग के लिए सब उनकी प्रशंसा करते हैं। वे हमारी फौजों की रीढ़ हैं। उन्हें कैसा लगेगा जब उनके कपड़ों या रहन-सहन को विस्मय से देखा जाएगा?
पंजाब में यह बात कही जाती है कि गांव का लड़का कॉलेज की शिक्षा पाने के बाद गांव का नहीं रहता। वो अपने आप को अलग और श्रेष्ठ समझने लगता है, मानो वो यहां से नहीं किसी और ही दुनिया से है। उसकी एक ही कोशिश रहती है कि कैसे वो गांव छोड़कर शहर भाग जाए। क्या इसे शिक्षा के नाम पर एक धब्बा नहीं कहना चाहिए?
मैं मानता हूं सभी जगह ऐसा नहीं है। मैं ये भी जानता हूं कि तमिलनाडु या बंगाल में अपने पारंपरिक पहनावे को पहनने को लेकर कोई हीनभावना नहीं है। एक किसान से लेकर प्रोफेसर तक कोई भी, किसी भी अवसर पर धोती पहन के जा सकता है। पर वहां भी उधार लिए गए विचार किसी-न-किसी शक्ल में सामने आते हैं। ये किसी न किसी स्वरूप में हर जगह मौजूद हैं।
आज़ादी से पच्चीस साल बाद भी हम खुशी से वही शिक्षण-प्रणाली ढो रहे हैं, जो मैकाले ने क्लर्क और मानसिक गुलामों को बनाने के लिए बनाई थी। वो गुलाम जो अपने ब्रिटिश मालिकों के बारे में सोच पाने में भी असमर्थ होंगे, वो, जो अपने मालिकों से नफरत करने के बावजूद भी उनकी हमेशा तारीफ करेंगे, उनके जैसे बोलने, कपडे़ पहनने, गाने-नाचने में गर्व महसूस करेंगे। ये गुलाम जो अपने ही लोगों से नफरत करते हैं और बाकियों को भी नफरत का पाठ पढ़ाने के लिए तैयार रहेंगे। क्या अब भी हमें आश्चर्य होगा कि विश्वविद्यालयों में विद्यार्थियों का अपनी शिक्षा-व्यवस्था से विश्वास उठता जा रहा है।
यहां मैं फिर एक और छोटी बात बताना चाहूंगा। अगर आज से दस साल पहले आप दिल्ली के किसी फैशनेबल विद्यार्थी को पतलून के साथ कुर्ता पहनने के लिए कहते तो वह आप पर हंस देता। पर आज यूरोप से आए हिप्पियों और ‘हरे रामा हरे कृष्णा’ संस्कृति की नकल में, पतलून के साथ कुर्ता पहनना सिर्फ फैशन ही नहीं बना बल्कि कुर्ते का नाम ‘गुरुशर्ट’ हो गया है। अमेरिकियों द्वारा रविशंकर को सम्मान मिलते ही सितार ‘स्टार’ ही बन गया, बिलकुल वैसे ही जैसे 50 साल पहले स्वीडन से नोबेल पुरस्कार मिलते ही रवींद्रनाथ टैगोर पूरे देश के ‘गुरुदेव’ बन गए थे।
क्या आप कॉलेज के किसी विद्यार्थी से सिर के बाल और दाढ़ी-मूंछें मुंडवाने के लिए कह सकते हैं जबकि फैशन इसे बढ़ाने का है? पर अगर कल योग के प्रभाव में आकर यूरोप के विद्यार्थी ऐसा करने लगें तो मैं दावे से कह सकता हूं की अगले ही दिन कनाट प्लेस पर आपको गंजे सिर ही दिखेंगे। योग को इसकी जन्मभूमि में प्रचलित होने के लिए यूरोप से ही सर्टिफिकेट लेना होगा!
मैं एक और उदहारण देता हूं, मैं हिन्दी फिल्मों में काम करता हूं और सभी जानते हैं कि इन फिल्मों के गीत और संवाद ज्यादातर उर्दू में लिखे जाते हैं। मशहूर उर्दू लेखक और कवि- कृशन चंदर, राजिंदर सिंह बेदी, केए अब्बास, गुलशन नंदा, साहिर लुधियानवी, मजरूह सुल्तानपुरी, कैफी आजमी जैसे नाम इस काम से जुड़े रहे हैं। तो जब उर्दू में लिखी हुई फिल्म को हिन्दी फिल्म कहते हैं तो ये माना जा सकता है कि हिन्दी और उर्दू एक ही हैं। पर नहीं! क्योंकि हमारे ब्रिटिश मालिकों ने अपने समय पर इन्हें दो अलग भाषाएं कहा था इसलिए ये अलग हैं, पर आज़ादी के पच्चीस साल बाद भी हमारी हुकूमत, हमारे विश्वविद्यालय, विद्वान हिन्दी और उर्दू को अलग-अलग भाषाएं माने हुए हैं।
क्या आपने कभी संसार के किसी और देश के बारे में भी ये सुना है कि वहां लोग बोलते एक भाषा हैं, पर लिखते समय वह दो भाषाएं कहलाएं? कोई भी भाषा किसी भी लिपि में लिखी जा सकती है। मेरी मातृभाषा पंजाबी के लिए दो लिपियां कबूल की गई हैं। हिंदुस्तान में गुरुमुखी और पाकिस्तान में फारसी। दो लिपियों में लिखी जाने पर भी वह भाषा तो एक ही रहती है… पंजाबी। तो दो लिपियों में लिखी जाने के कारण हिन्दी और उर्दू अलग-अलग भाषाएं कैसे हो गईं?
रेडियो पाकिस्तान अरबी और फारसी के शब्द घुसेड़-घुसेड़कर इस भाषा की खूबसूरती का सत्यानाश कर रहा है, वहीं आॅल इंडिया रेडियो उर्दू के साथ संस्कृत के शब्दकोश को मिला देता है। दोनों इन दोनों के मूल स्वरूप को ही बिगाड़ते हुए एक तरह से अपने मालिक की ही इच्छा की पूर्ति कर रहे हैं, वो है ‘अविभाज्य’ को अलग करना। इससे ज्यादा बेतुका और क्या होगा?
अगर ब्रितानियों ने कभी सफेद को काला कह दिया होता तो क्या हम हमेशा सफेद को काला ही कहते? इस बात पर मेरे दोस्त जानी वॉकर एक दिन कहने लगे, ‘रेडियो पर अनाउंसर को यह नहीं कहना चाहिए कि अब हिन्दी में समाचार सुनिए, बल्कि यह कहना चाहिए कि अब समाचार में हिन्दी सुनिए।’ मैंने इस हास्यास्पद स्थिति के बारे में हिन्दी-उर्दू के कई प्रगतिवादी और परंपरागत लेखकों से भी बात की है, उन्हें इस बात के लिए मनाया है कि इस मुद्दे पर नई सोच की जरूरत है। पर अब तक ये दीवार पर अपना सिर मारने जैसा ही है! हम फिल्म वाले लोग इसे ‘विद्वानों की जहालत’ कहते हैं। क्या हम गलत हैं?
यहां मैं आपको अपना एक अनुमान बताने से नहीं रोक पा रहा हूं, हो सकता है कि ये गलत हो पर ये है! ये सही भी हो सकता है! कौन जाने! पंडित जवाहरलाल नेहरू ने अपनी आत्मकथा में स्वीकार किया है कि देश की आज़ादी की लड़ाई, जिसका नेतृत्व इंडियन नेशनल कांग्रेस कर रही थी, में शुरू से ही संपन्न और पूंजीपति वर्ग का वर्चस्व रहा है। सो यह स्वाभाविक ही था कि आज़ादी के बाद इसी वर्ग का शासन और समाज पर वर्चस्व होता। और आज कोई भी इस बात से इंकार नहीं करेगा कि पिछले 25 सालों से पूंजीपति वर्ग दिन-प्रतिदिन और ज्यादा धनवान और शक्तिशाली हुआ है वहीं मजदूर-किसान वर्ग और ज्यादा लाचार और परेशान।
पंडित नेहरू इस स्थिति को बदलना चाहते थे, पर बदल नहीं सके। इसके लिए मैं उन्हें दोष नहीं देता। हालात ने उन्हें मजबूर कर रखा था। आज इंदिरा गांधी के नेतृत्व में हमारी हुकूमत फिर इस स्थिति को बदलने और समाजवाद लाने का वादा कर रही है। वे कब और किस हद तक सफल होंगी, कुछ कहा नहीं जा सकता। न ही इस बहस में पड़ने का मेरा इरादा है। राजनीति मेरा विषय नहीं है। सिर्फ इतना कहना ही काफी है कि जिस तरह हिंदुस्तान में अंग्रेजों की हुकूमत पर अंग्रेज पूंजीपतियों का दबदबा था, उसी तरह आज देश की हुकूमत पर हिंदुस्तान के पूंजीपतियों का प्रभाव है।
मैं समझता हूं कि ये बात तो सभी मानेंगे कि अंग्रेजों की पूंजीवादी व्यवस्था ने अपने कदम मजबूत करने के लिए अंग्रेजी भाषा का प्रयोग किया था, जिसमें उन्हें खासी सफलता भी मिली।
मैं पूछता हूं कि आज हमारे देश के शासक किस भाषा को अपने प्रतिनिधित्व को मजबूत करने लायक समझते हैं? राष्ट्रभाषा हिन्दी? यहां मेरा अनुमान ये कहता है कि उनके उद्देश्यों की पूर्ति सिर्फ और सिर्फ अंग्रेजी ही कर सकती है। पर चूंकि उन्हें अपनी देशभक्ति का दिखावा भी करना है इसलिए वो राष्ट्रभाषा हिन्दी की रट लगाए रहते हैं जिससे जनता का ध्यान भटका रहे। पूंजीपति भले ही हजारों भगवान में विश्वास करें पर वो पूजता सिर्फ एक को ही है- मुनाफे का भगवान। उस दृष्टिकोण से उसके लिए आज भी अंग्रेजी ही फायदेमंद है। औद्योगिकीकरण और तकनीकी विकास के इस दौर में अंग्रेजी ही फायदेमंद है। शासक वर्ग के लिए तो अंग्रेजी गॉड-गिफ्ट ही है।
आप सोच रहे होंगे कि वह कैसे? आसान-सा कारण है- अंग्रेजी भारत के आम मेहनतकश लोगों के लिए एक मुश्किल भाषा है। पहले के समय में फारसी और संस्कृत इन मेहनतकशों की पहुंच से दूर थी, इसीलिए शासक वर्ग ने उन्हें राजभाषा का दर्जा दिया था, जिससे वे जनसाधारण में असभ्य, अशिक्षित होने की हीनता व आत्मग्लानि की भावनाएं पैदा करता था और वो खुद को कभी शासन के योग्य ही न बना पाए। आज यही रोल अंग्रेजी भाषा अदा कर रही है।
यही आज भारत का शासक वर्ग कर रहा है। ये देश में इंकलाब नहीं चाहता, कोई बुनियादी तब्दीली नहीं चाहता। अंग्रेजों से मिली हुई व्यवस्था को उसी प्रकार कायम रखने में उसका फायदा है। पर वह खुलेआम अंग्रेजी को अंगीकार नहीं कर सकता। राष्ट्रीयता का कोई न कोई आडंबर खड़ा करना उसके लिए जरूरी है। इसीलिए वह संस्कृतवादी हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्वीकार करने का ढोंग करता है। उसे पता है कि संस्कृत शब्दों के बोझ तले दबी नकली और बेजान भाषा अंग्रेजी के मुकाबले में खड़ी होने का सामर्थ्य अपने अंदर कभी भी पैदा नहीं कर सकेगी।
आज के युग के वैज्ञानिक और तकनीकी शब्दों से रिक्त होने के कारण वह हमेशा कमजोर भाषा बनी रहेगी। हम फिल्मी कलाकारों को उनके प्रशंसकों की ओर से रोज पत्र आते हैं। ऐसे पत्र मुझे पिछले बीस साल से आ रहे हैं। यह पत्र आमतौर पर कॉलेज के विद्यार्थियों और पढ़े-लिखे नौजवानों की ओर से आते हैं।
उनके आधार पर मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि हमारी शिक्षण संस्थाओं में अंग्रेजी का स्तर दिन-प्रतिदिन गिरता जा रहा है। शायद इसलिए, मैंने सुना है कि दाखिला देते समय कॉलेज में पब्लिक स्कूलों से पढ़कर आने वाले विद्यार्थियों को महत्व दिया जाता है। पब्लिक स्कूल मतलब वो स्कूल जहां पर बड़े घरों के बच्चे पढ़ते हैं।
मेरे लिए अंग्रेजी को ताकतवर बनाने की इस बात पर टिप्पणी करना जरूरी नहीं है। ये स्पष्ट भी है। ये बात मानी भी जा चुकी है कि अंग्रेजी विदेशी है और एक औसत आम भारतीय के लिए इसे सीखना कठिन है। पर फिर भी, आप खुद अपनी आंखों से देख सकते हैं कि किस प्रकार जीवन के हर क्षेत्र में अंग्रेजी को महत्व दिया जा रहा है।
मेरी नाचीज राय में इसका बुनियादी कारण ये है कि उद्योग के क्षेत्र में पूंजीपतियों के राष्ट्रीय पैमाने पर संगठित होने और वर्तमान सामाजिक ढांचे को ज्यों का त्यों कायम रखने के लिए अंग्रेजी बहुत ज्यादा सहायक है।
कुछ दिन पहले की बात है, मैंने अपना यह विचार बम्बई के एक मजदूर नेता के सामने रखा और कहा कि आप अगर सचमुच पूंजीवादी व्यवस्था की जगह समाजवादी व्यवस्था कायम करना चाहते हैं, तो मजदूरों को भी पूंजीपतियों की तरह राष्ट्रीय पैमाने पर संगठित होकर आत्मविश्वास पैदा करना होगा और यह चीज अंग्रेजी से पीछा छुड़ाकर ही हो सकती है। मजदूर नेता मुझसे सहमत हुए, पर कहने लगे, ‘रोग तो आपने ठीक पकड़ा है, पर इसका इलाज क्या है?’
‘इलाज ये है कि अंग्रेजी लिपि को अपनाना और अंग्रेजी भाषा को धक्का देकर बाहर निकालना।’
‘वह कैसे?’
‘टूटी-फूटी हिंदुस्तानी सारे देश के मजदूर बोल और समझ लेते हैं। वो इसमें अपना सारी व्याकरण मिलाकर इसका प्रयोग करते हैं। इस तरह की भाषा में लड़की भी ‘जाता’ है और लड़का भी ‘जाता’ है, होता है। इस तरह के माहौल में एक ऐसी आज़ादी मिलती है कि कई बार बुद्धिजीवी भी इस तरह की भाषा बोलते हुए देखे जा सकते हैं। और यही तो भारत की परंपरा में है।
आज की हिंदुस्तानी में यूनिवर्सिटी ‘यूनीवरास्टी’ बन जाता है, (विश्वविद्यालय के मुकाबले में यूनीवरास्टी कितना सुंदर और जानदार शब्द है!) स्पैनर ‘पाना’ है, लैंटर्न ‘लालटेन’, कार की ‘चेसिस’ ‘चैसी’ हो जाती है यानी सब कुछ संभव है। जिस तार से फौजी अपनी बंदूक साफ करते हैं वो अंग्रेजी में पुल-थ्रू कहलाता है पर रोमन हिंदुस्तानी में ये ‘फुल्ट्रू’ बन जाता है।
कितना सुंदर शब्द! हॉलीवुड के लाइटमैन एक तरह के कवर के लिए बार्न डोर शब्द प्रयोग करते हैं, बम्बई फिल्म कर्मचारियों में इसे नाम दिया ‘बंदर’, वाह! कितना अच्छा बदलाव है! इस तरह की हिंदुस्तानी में तमाम संभावनाएं हैं। ये अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक और तकनीक शब्दावली को कितनी आसानी से अपना लेती है। ये हर जगह से शब्द ले कर खुद को समृद्ध बना लेती है। बार-बार संस्कृत शब्दकोश देखने की जरूरत ही नहीं।’
‘पर रोमन लिपि ही क्यों?’ उन्होंने पूछा।
‘इसलिए कि किसी लिपि के बारे में किसी के कोई पूर्वाग्रह नहीं हैं। फिर, इस समय यह राष्ट्रीय पैमाने पर सबसे ज्यादा प्रचलित लिपि है। मद्रास, कलकत्ता, बम्बई, दिल्ली आदि शहरों में हर जगह दुकानों और फिल्मों के साइनबोर्ड इसी लिपि में लिखे हुए नजर आएंगे। खतों पर नाम व पता लिखने के लिए भी तो देश-भर में यही लिपि इस्तेमाल की जाती है। फौज तो इसे लगभग 30 सालों से इस्तेमाल कर रही है।’
वो दोस्त कुछ देर चुप रहे, फिर हंसकर कहने लगे, ‘काॅमरेड, यूरोप में भी एक बार एस्प्रांटों चलाने का तजुर्बा किया गया था। जाॅर्ज बर्नार्ड शाॅ जैसे विद्वान ने इसे अंग्रेजी जैसा मशहूर बनाने के लिए पूरा जोर लगाया था पर वह प्रयोग बुरी तरह असफल हुआ, क्योंकि वह बनाई गई भाषा थी। भाषाएं बनाई नहीं जातीं, वे अपने-आप स्वाभाविक ढंग से बनती हैं,।’
मैं हैरानी से उनकी ओर देखता रह गया। फिर मैंने कहा, ‘काॅमरेड, एस्प्रांटों तो वह है, जिसे राष्ट्रभाषा के नाम पर हिन्दी पंडित संस्कृत के शब्दकोश से शब्द लाकर गढ़ रहे हैं। मैं उस भाषा की बात कर रहा हूं जो आस-पास लोगों द्वारा फैलाई जा रही है।’
मैंने और भी कई दलीलें दीं, पर उन्हें राजी न कर सका। मैंने जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस का भी हवाला दिया कि इन दोनों महान नेताओं ने भी रोमन हिंदुस्तानी की जोरदार हिमायत की थी पर इसका भी उन पर कोई असर न हुआ। यहां सवाल ये नहीं है कि उनमें और मुझमें कौन सही था। शायद मैं गलत था। पर उनके अनुसार मेरी बात उन्हें शेखचिल्ली का सपना लग रही थी।
जैसा मैंने पहले भी कहा कि अनुमान सही भी हो सकते हैं और गलत भी। पर कोई भी अनुमान या अनकही बात कर पाना आज़ाद सोच की निशानी है। काॅमरेड को इस बात की तारीफ करनी चाहिए थी पर वे ऐसा नहीं कर पाए क्योंकि वो एक तयशुदा सोच से हटकर सोच ही नहीं सके।
कोई भी देश तभी उन्नति कर सकता है, जब वो अपने अस्तित्व से पूरी तरह वाकिफ हो। इसे अपने लिए सोचना-सीखना होगा। इसे अपनी समस्याओं के समाधान खुद तलाशना सीखना होगा। पर मैं जिस ओर भी देखता हूं मुझे लगता है कि हमारी हालत अभी भी उस पक्षी जैसी है, जो लंबी कैद के बाद पिंजरे में से आज़ाद तो हो गया हो, पर उसे नहीं पता कि इस आज़ादी का करना क्या है। इसके पास पंख हैं पर ये खुले आसमान में उड़ने से डरता है। ये सिर्फ उस सीमा में ही रहना चाहता है जो उसके लिए निर्धारित की गई है।
व्यक्तिगत और सामूहिक रूप से हम वाॅल्टर मिटी (एक उपन्यास का काल्पनिक चरित्र जो एक काल्पनिक दुनिया में ही रहता है) जैसी ज़िंदगी ही जी रहे हैं। हमारे अंदर की ज़िंदगी बाहर की ज़िंदगी से बिलकुल उलट है। हमारी सोच और कामों में जमीन-आसमान का अंतर है। हम बदलाव तो चाहते हैं पर बरसों से चली आ रही लीक से हटकर सोच पाने का साहस ही नहीं जुटा पाते।
मैं समझता हूं कि हमारे देश में भी कई पुलिस-अफसर ऐसे होंगे, जो जनता के मन में डर पैदा करने की बजाय उसकी सेवा और सहायता करना चाहते हैं। उन्होंने यह भी पढ़ा-सुना होगा कि इंग्लैंड में पुलिस का जनता से व्यवहार बहुत मददगार होता है। पर वे अंग्रेजी साम्राज्य से मिली हुई व्यवस्था के शिकार हैं जो अपने देश में तो अलग है पर यहां के लिए नहीं।
इस औपनिवेशिक परंपरा के अनुसार, जब भी कोई व्यक्ति उनके दफ्तर में दाखिल हो, तो डर भर दिया जाए, उससे जितना हो सके प्रतिरोधी और ग़ैर-मददगार व्यवहार किया जाए। ये व्यवस्था हर सरकारी दफ्तर में चपरासी से लेकर मंत्री तक में देखी जा सकती है।
मुझे एक घटना याद आ रही है, जो मेरे एक फिल्म-निर्माता मित्र ने बताई थी। उसने बाॅक्स-आॅफिस की बजाय समाज की भलाई को सामने रखकर एक फिल्म बनाने की गलती कर डाली। वह चाहता था कि उस पर मनोरंजन कर माफ हो जाए।
मंत्री ने उसे मिलने के लिए राजभवन में आने का समय दिया हुआ था। वे नए-नए मंत्री बने थे और उसी दिन उन्हें शपथ लेनी थी। निर्माता नियत समय पर पहुंच गया। मंत्री के सेक्रेटरी ने उसे अपने पास खड़ा कर लिया। उधर, मंत्री राज्यपाल के सामने जनता की निष्काम सेवा करने की कसम उठा रहे थे और इधर उनका सेक्रेटरी निर्माता से बीस हजार रुपये रिश्वत के तौर पर मांग रहा था।
वह निर्माता बहुत चाहता है कि इस दृश्य को अपनी किसी फिल्म में डाल दे। पर कोई फाइनेंसर इस फिल्म के लिए तैयार नहीं हैं। पर अगर फिल्म बन भी जाए तो क्या हमारा सेंसर इस बात की इजाजत देगा? सेंसर के अनुसार ये अलिखित कानून है कि सरकार का कोई भी मंत्री रिश्वत नहीं लेता। पर यहां ज्यादा हास्यास्पद बात यह है कि जो लोग हर समय मंत्रियों के रवैये के खिलाफ शिकायतें करते हैं, वही मंत्रियों को हार पहनाने के लिए सबसे आगे खड़े होते हैं।
किसी भी सभा-सोसायटी का जलसा हो, वहां मंत्री जरूर आना चाहिए। या तो वहां फिल्म अभिनेता मुख्य अतिथि होगा नेता अध्यक्ष या उल्टा होगा, नेता मुख्य अतिथि और फिल्म अभिनेता अध्यक्ष। किसी बड़े नाम का वहां होना बहुत ही आवश्यक है क्योंकि ये एक ब्रिटिश, औपनिवेशिक परंपरा है।
मैं 25 वर्षों से इप्टा (इंडियन पीपुल्स थियेटर एसोसिएशन) का सदस्य हूं। यह संस्था आम जनता के लिए नाटक खेलने का दावा करती है। इसके नाटकों में सरकार और शासन-व्यवस्था की कड़ी आलोचना होती रही है। इसलिए सीआईडी इस पर खास नजर रखती है। पर मैंने देखा है कि इसी इप्टा की काॅन्फ्रेंस के उद्घाटन के लिए मंत्रियों का आना जरूरी समझा जाता है।
आखिरी विश्व युद्ध के समय मैंने कुछ समय बीबीसी में बतौर उद्घोषक काम करते हुए बिताया। संकट के चार उन सालों में भी मैंने प्रधानमंत्री समेत ब्रिटिश कैबिनेट के किसी भी मंत्री को कहीं नहीं देखा। पता नहीं, वे कहां छिपे रहते थे! पर यहां, देश की आज़ादी के बाद से ही मुझे हर जगह मंत्री ही दिखाई दे रहे हैं।
1930 में जब महात्मा गांधी गोलमेज सम्मेलन के लिए इंग्लैंड गए थे, तो उन्होंने इंग्लैंड के पत्रकारों को संबोधित करके कहा था, ‘हिंदुस्तान के लोग ब्रिटिश सरकार की बंदूकों और मशीनगनों को उसी तरह देखते हैं, जिस तरह दीवाली के दिन उनके बच्चे पटाखों को देखते हैं।’ यह दावा वे क्यों कर सके? इसलिए कि उन्होंने हिंदुस्तानियों के दिलों में से अंग्रेज शासकों का डर निकाल दिया था।
आम लोग अंग्रेज शासकों को इज्जत की जगह नफरत से देखने और उनके साथ असहयोग करने लगे थे। यह साहस महात्मा गांधी ने निहत्थे हिंदुस्तानियों के दिलों में भरा था।
आज अगर हम सचमुच चाहते हैं कि हमारे देश में समाजवाद आए, तो जनसाधारण को पैसे और रुतबे की छाया से आज़ाद कराने की जरूरत है। पर इस समय असलियत क्या है? हर तरफ पैसे और रुतबे का बोलबाला है। समाज में इज्जत उसकी ही है, जिसके पास मोटरें हैं, बंगले हैं, दौलत का दरिया बहता है। क्या कभी ऐसी हालत में समाजवाद आ सकता है?
समाजवाद से पहले हमें वो माहौल लाना होगा जहां सिर्फ धन-दौलत का होना ही सम्मान देने का पैमाना न बने। हमें ऐसा माहौल बनाना होगा जहां सबसे ज्यादा सम्मान उस मजदूर को मिले जो चाहे शारीरिक मेहनत करता हो या मानसिक। अपने कौशल के साथ मेहनत करता हो या प्रतिभा के साथ। अपनी कला से देश की सेवा कर रहा हो या किसी अाविष्कार से। इसके लिए पुरानी सोच को तोड़कर एक नई सोच लाने की जरूरत होगी। क्या हम कहीं से भी खुद को उस क्रांति को लाने के करीब पाते हैं?
शायद हमें आज एक मसीहा की जरूरत है जो हमें इस गुलामी से निकाल कर एक आज़ाद सोच और नए मूल्यों का निर्माण करने का साहस दे। जिससे हम अपने शासकों के साथ जुड़ने की बजाय आम जनता के साथ जुड़ें। ये मेरी आशा और प्रार्थना है कि आप जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी के ग्रेजुएट अपने जीवन में वो सफलता पाने में समर्थ होंगे जो मैं और मेरी पीढ़ी के कई लोग नहीं पा सके।