सत्र संचालन
प्रशिक्षक पिछले सत्र के सीखे गए बिंदुओं को दर्ज करते हुए पुनरावलोकन करेगा।
प्रतिभागियों से दो गतिविधियां करवाई जानी हैं। पहली गतिविधि निजी होगी, दूसरी छोटे-छोटे समूहों में की जाएगी। दोनों गतिविधियों के लिए आधे से पौन घंटे का समय दिया जाना चाहिए।
गतिविधि शुरू करने से पहले थोड़ा चर्चा करते हुए यह स्पष्ट करना चाहिए कि संवाद में आने वाली अड़चनों को हमने पिछले सत्र में पहचाना था। जरूरी नहीं कि हर व्यक्ति अपने स्पेस में संवाद को उत्सुक रहता ही हो, इसके बावजूद अपने मूल्यों के हिसाब से या सामाजिक मूल्यों के हिसाब से जीने में दिक्कतें सभी को आती हैं। कहीं निजी और सामाजिक मूल्य का टकराव होता है। कहीं संवैधानिक मूल्यों का सामाजिक मूल्यों से टकराव होता है।
एक सामाजिक कार्यकर्ता के तौर पर जब हम घर, परिवार, समाज, समुदाय में जाते हैं तो अपने कुछ मूल्य लेकर जाते हैं। जरूरी नहीं कि हम आदर्श रूप से संवैधानिक मूल्यों पर ही जी रहे हों, लेकिन सचेत नागरिक होने के नाते संवैधानिक मूल्यों को लागू करने की आकांक्षा जरूर रखते हैं। ऐसे में अपने घर-परिवार, गांव-कस्बे, समुदाय और व्यापक समाज में क्या हमें कोई अड़चन आती है?
संविधान भले आजादी, भाईचारे, इंसाफ और बराबरी की बात करता हो, लेकिन हम सब अपने अनुभव से जानते हैं कि समाज में ये चारों मूल्य बहुत दुर्लभ हैं। क्यों है आखिर ऐसा?
इसी को समझने के लिए हम आज दो गतिविधियां करेंगे।
गतिविधि 1
प्रशिक्षक सभी प्रतिभागियों को एक सवाल देगा और आधा घंटा जवाब लिखने का समय देगा। सभी को आधे घंटे बाद अपने-अपने जवाब सदन के समक्ष पढ़ने होंगे।
सवाल: निजी जीवन में आपको अपने घर-परिवार और रिश्तों के भीतर मूल्यपरक जीवन जीने या व्यवहार करने में कैसी बाधाएं आती हैं? ऐसी तीन बाधाएं लिखें।
प्रशिक्षक ध्यान दें
प्रस्तुति के दौरान प्रशिक्षक सबके जवाबों को बोर्ड पर सामने लिखेगा। फिर इस पर प्रतिभागियों के बीच चर्चा करवाएगा और चर्चा से निकले प्रमुख बिंदुओं को बोर्ड पर दर्ज करेगा।
गतिविधि 2
प्रशिक्षक प्रतिभागियों के छोटे-छोटे समूह बनाकर उन्हें एक सवाल देगा और चर्चा कर के जवाब लिखने के लिए पौन घंटे का समय देगा। सभी समूहों को पौन घंटे बाद अपने-अपने जवाब सदन के समक्ष पढ़ने होंगे।
सवाल: सामाजिक जीवन में आपको अपने कार्यस्थल पर, संगठन में, संस्थान में मूल्यपरक जीवन जीने या व्यवहार करने में कैसी बाधाएं आती हैं? ऐसी तीन बाधाएं लिखें।
प्रशिक्षक ध्यान दें
प्रस्तुति के दौरान प्रशिक्षक हर समूह के जवाब को बोर्ड पर सामने लिखेगा। फिर इस पर समूहों के बीच चर्चा करवाएगा और चर्चा से निकले साझा बिंदुओं को बोर्ड पर दर्ज करेगा।
प्रशिक्षक डीब्रीफिंग
दोनों गतिविधियों से निकले बिंदुओं का समाहार करते हुए प्रशिक्षक इस तथ्य को रेखांकित करेगा कि भले ही संविधान ने हमें स्वतंत्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व के मूल्यों के हिसाब से राष्ट्र को गढ़ने का आदर्श दिया था, लेकिन सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि इस राष्ट्र की सभी इकाइयां- परिवार से लेकर राज्य तक, इन मूल्यों के प्रत्यक्षतः/खिलाफ दिखती हैं। इसका साफ अर्थ है कि संविधान निर्माताओं ने बिलकुल उन्हीं बिंदुओं पर अपना हाथ रखा, जहां यह समाज ऐतिहासिक रूप से कमजोर था।
जो अड़चनें आप सब ने गिनवाई हैं वे बहुत स्वाभाविक हैं। इसका संबंध इस समाज की संरचना से है, जिसे ऐतिहासिक रूप से समझने के लिए हमें अतीत में जाना होगा। आखिर जैसे गैर-बराबरी का सामना हम रोज करते हैं, वह आती कहां से है? जबकि मूल्य तो हम सब के भीतर अपने अनुभवों से ही छुपे होते हैं? जब हर कोई अनुभवजन्य मूल्यों के हिसाब से जीवन जी रहा है, तो समाज मूल्यहीन क्यों है?
इस पहेली को थोड़ा विस्तार से समझना जरूरी है।
संविधान निर्माताओं के पास संविधान का एक ऐसा मॉडल चुनने की उलझन थी जो भारतीय समाज के लिए सबसे उपयुक्त हो। संविधान सभा के पास दो उदाहरण थे। एक संयुक्त राज्य अमेरिका की संघीय व्यवस्था का और दूसरा ब्रिटिश प्रणाली संविधान का। राज्यों के संघ वाली अमेरिकी प्रणाली में विविधता पर विमर्श नहीं है। उनका विमर्श बहुलता के इर्द-गिर्द केंद्रित था। उनकी प्रणाली हर किसी को अवसर प्रदान करने के लिए कहती है। उनकी प्रणाली में सर्वाधिक मत प्राप्त कर प्रथम स्थान पर आने वाले और दूसरे स्थान पर आने वाले के बीच मतों का अंतर उनके समाज में मौजूद बहुलता के बारे में बताता है। उदाहरण के लिए, चुनाव में एक रिपब्लिकन और एक डेमोक्रेट को प्राप्त मतों के बीच व्यापक अंतर का मतलब होगा कि मतदाताओं के बीच कम बहुलता मौजूद है। जब दोनों के बीच मतों का अंतर कम होगा, तब इसका अर्थ यह हुआ कि बहुलता की सीमा अत्यधिक है। उनके पास प्रत्यक्ष मतदान प्रणाली है। अमेरिकी बहुलता, भारतीय विविधता के बराबर नहीं है।
जब हम बहुलता और विविधता का इस्तेमाल एक साथ करते हैं, तो यहां अंग्रेजी के दो शब्दों को समझना जरूरी है- Plural और Diverse: हिंदी में Plurality को बहुलता और Diversity को विविधता कहा जाता है। Plurality (बहुलता) तब होती है, जब एक से अधिक चीजें मौजूद हों; लेकिन वह विविधता (Diversity) नहीं है। प्राकृतिक रूप से तो हम एक से अधिक चीजों का अस्तित्व पाते ही हैं। इसमें क्या खास है? जो हमें कुदरती रूप से मिला है, उसे हजारों वर्षों में अपने अभ्यास, संघर्ष, सामाजिक पहल के माध्यम से हमने और समृद्ध भी तो किया है, उसे संजोया भी तो है। जो चीजें मनुष्य ने अपने सभ्यताक्रम में विकसित की हैं, वे विविधता कहलाती हैं।
उदाहरण के लिए हमें सा रे गा मा स्वर मिले। हमने इससे हिंदुस्तानी संगीत, कर्नाटक संगीत को विकसित किया। हमें आवाज मिली और हमने इसे विभिन्न रूपों जैसे लेखन, ऑडियो, ब्लॉग, वेबसाइट आदि में विकसित किया। कुदरत से मिली हुई बहुलता पर हमने बहुत सांस्कृतिक मेहनत की और विविधता का निर्माण किया। यही कारण है कि विविधता कड़ी मेहनत और सांस्कृतिक हस्तक्षेप की मांग करती है। यही भारत को अमेरिका से अलग करता है। इसलिए अमेरिकी संविधान का प्रारूप यहां नहीं चल सकता था।
दूसरी तरफ ब्रिटिश संविधान एक ‘बहुसंख्यक लोकतांत्रिक’ प्रणाली प्रदान करता है। उसकी प्रणाली को भी भारतीय समाज के लिए उपयुक्त नहीं माना जा सकता था। इसके पीछे भी विविधता का ही कारण है। हमारे यहां हजारों भाषाएं हैं। वर्तमान में भारत में 65 धर्म हैं। हमने सांस्कृतिक और भावनात्मक रूप से इतना संघर्ष किया है कि सामाजिक स्तर पर हमने भावनात्मक रूप से विविधता पैदा कर ली है। भारत के पास जो विविधता है, वह प्रकृति प्रदत्त नहीं है। भारतीय समाज ने इस विविधता को सदियों के संघर्ष, आत्मसातीकरण और सृजन से निर्मित किया। बहुलता को समाहित करते हुए यहां विभिन्न जातियों, धर्मों, जनजातियों आदि के विविध समाज का निर्माण हुआ।
सामाजिक प्रथाओं के विभिन्न उदाहरणों से इसे समझा जा सकता है। गुजरात में एक हिंदू परिवार एक दरगाह की ढाई सौ साल से देखभाल कर रहा है। आलू पकाने के यहां चार सौ तरीके हैं। ये विविध तरीके आलू के पीछे लगाए गए सामाजिक और मानवीय श्रम का परिणाम हैं।
इसीलिए संविधान सभा में हुई बहस भारत की विविधता पर आकर अटक गई थी। सदस्यों को इस सवाल का सामना करना पड़ा कि विविधता का क्या किया जाए। राष्ट्र इतना विविध है कि हाल के सर्वेक्षण के अनुसार 780 भाषाएं (बोलियों के अलावा) बोली जाती हैं। ये भाषाएं हमें प्रकृति प्रदत्त नहीं हैं। ये भाषाएं समय के साथ विकसित हुईं। इसलिए, जब संविधान लिखा गया था, तो हमारे दो उद्देश्य थे। पहला, ‘संविधान को सामाजिक क्रांति की सुविधा देनी चाहिए’ और दूसरा उद्देश्य ‘भारत की सामाजिक विविधता की रक्षा करना’ था। विविधता की रक्षा करने का कर्तव्य उन लोगों को दिया गया, जिन्होंने खुद को संविधान अर्पित किया था यानी हम लोग, ‘वी, द पीपुल’।
भारत की विविधता की रक्षा करना हमारा प्राथमिक कर्तव्य है। चूंकि हम अभिव्यक्त करने वाले प्राणी भी हैं, तो हमारी हर अभिव्यक्ति का आधार विविधता होनी चाहिए। अनुच्छेद 19ए इस आधार की सुरक्षा की गारंटी देता है। जब हम सांस्कृतिक अभिव्यक्ति, सामाजिक-राजनीतिक अभिव्यक्ति या पत्रकारीय अभिव्यक्ति करते हैं, तो हमें यह ध्यान रखना चाहिए कि हम विविधता को कम नहीं करते, बल्कि विविधता की रक्षा करते हों।
दिक्कत यह हो गई कि हमने विविधता की रक्षा करने के बजाय अपनी-अपनी पहचानों की रक्षा करना शुरू कर दिया। दूसरे की पहचान को अपनी पहचान का विरोधी मान लिया। इसीलिए, आज पहचानों में बंटा समाज किसी भी मूल्य को बरदाश्त नहीं कर पाता है। हर जगह हमें चारों मूल्यों का हनन देखने को मिलता है।
भारतीय समाज सदियों से एक मिश्रित समाज था। यहां एकता में विविधता के मूल्य थे। अंग्रेजों द्वारा भारतीय समाज के मूल्यों को धार्मिक पहचान की तर्ज पर सांप्रदायिक बना दिया गया। ब्रिटिश पाखंड यह था कि उन्होंने पहले इस समाज को विभाजित किया, फिर कहा कि वे भारतीयों को एकजुट कर रहे हैं। कह सकते हैं कि भारत के ‘एकता में विविधता’ वाले मूल्य को अंग्रेज शासकों ने ‘विविधता में एकता’ में बदल कर सिर के बल उलटा खड़ा कर दिया।
जो समाज सदियों से सह-अस्तित्व में रहता आया था, इस औपनिवेशिक परिवर्तन ने सांप्रदायिक ताकतों को ऊर्जा दी। धीरे-धीरे भारत अपनी सार्वभौमिक मूल्य प्रणाली से जुदा हो गया। जब तक ब्रिटिश ने उपमहाद्वीप पर कब्जा नहीं किया था, तब तक कश्मीर से लेकर दक्षिण तक अधिकांश हिस्सों में कलात्मक या धार्मिक ग्रंथ सामाजिक प्रथाओं से स्वायत्त अस्तित्व में रहते आए थे। पश्चिम ने मुद्रण की तकनीक का उपयोग करते हुए भारतीय ग्रंथों को बिना संदर्भ और सार समझे अनुवाद किया। अनूदित ग्रंथों से सबसे पहले पहचान आधारित भावनाओं को बढ़ावा मिला। तब से भारतीय समाज लगातार पहचान के आधार पर खंडित होता रहा और पहचान के राजनीतिकरण का मार्ग प्रशस्त करता रहा है।
नतीजतन, लोगों में समानता, न्याय, बंधुत्व, स्वतंत्रता के मूल्य कम पड़ते गए और देश के संसाधनों पर औपनिवेशिक शासकों का कब्जा हो गया।
आजादी के बाद भी संसाधनों पर कब्जे के चरित्र ने समाज को बांटने का ही काम किया। हम जिस समाज को देखते हैं, वह वैसा नहीं है जैसा संविधान उसे बनाना चाहता है इसीलिए संविधान के आदर्शों की ओर काम करना हम सबका कर्तव्य है क्योंकि वे आदर्श हमारे अपने हैं। हम खुद वैसा समाज बनाना चाहते हैं। इसलिए यह हमारी ही जिम्मेदारी है, राज्य उसे निभाए या न निभाए। इसी वजह से हमने संवाद, संलग्नता, स्वीकार्यता की अहमियत पर बात की है और इस प्रक्रिया में पहचानों और अधिकारों की सीमाओं को समझने की भी कोशिश की है। यह वाकई कठिन काम है।