सत्र संचालन
प्रशिक्षक याद दिलाएगा कि पिछले सत्र में हमने जाना कि कैसे एक मूल्य का ह्रास अकेले में नहीं होता, बाकी सारे मूल्य भी बराबर प्रभावित होते हैं। इस बात को थोड़ा और विस्तार से समझने के लिए प्रतिभागियों को एक खेल खेलना है।
गतिविधि 1
इस खेल के लिए प्रतिभागियों को खुले मैदान में जाने के लिए कहें।
- प्रतिभागियों को तीन समूहों में विभाजित करें (1, 2, 3)।
- प्रतिभागियों को मैदान के अलग-अलग कोने में त्रिकोणाकार में खड़ा होने के लिए कहें और त्रिकोण के तकरीबन बीच में एक ऐसी जगह एक बाल्टी को रख दें जिससे समूह 1 की बाल्टी से दूरी सबसे कम हो, समूह 3 की बाल्टी से दूरी सबसे ज़्यादा हो और समूह 2 की 1 से ज़्यादा और 3 से कम हो।
- बाल्टी के नीचे एक पत्थर लगाकर उसे समूह 1 की ओर थोड़ा झुका दें।
- सभी समूहों को गेंद दें। बारी-बारी से सभी समूहों को कहें कि वे निशाना लगाकर गेंद को बाल्टी में डालें।
- यह खेल तीन राउंड खिलाएं। हर राउंड में एक समूह को 8 बार बाल्टी में गेंद डालने का मौका मिलेगा। जितनी बार एक समूह गेंद को बाल्टी में डालेगा, उतनी बार प्रशिक्षक उसे एक अंक देगा।
- खेल का अंतिम स्कोर प्रशिक्षक नोट कर लेगा, कि हर समूह को आठ में से कितने अंक मिले।
- सबके सामने जीत और हार और सबके स्कोर सुनाए जाएंगे।
गतिविधि 2
खेल समाप्त होने के बाद तीनों समूहों को इन बिन्दुओं पर जवाब लिखना है और आधे घंटे बाद प्रस्तुति देनी है-
- क्या आप खेल के अंतिम नतीजे से संतुष्ट हैं?
- इस खेल में आपके समूह के साथ क्या कोई बेईमानी हुई?
- अगर आपको लगता है बेईमानी हुई, तो उसे कैसे ठीक किया जा सकता है?
- यह कौन तय करेगा कि खेल में बेईमानी को कैसे रोका जाए?
इन चारों सवालों पर तीनों समूहों की प्रस्तुति से निकले बिंदुओं को प्रशिक्षक नोट कर लेगा। फिर उन बिंदुओं को मूल्यों के आलोक में स्थापित करते हुए समूह चर्चा के लिए कुछ प्रश्न सदन के समक्ष रखेगा।
गतिविधि 3
निम्न प्रश्नों पर चर्चा करवाई जा सकती है। प्रशिक्षक चाहे तो कुछ और प्रश्न जोड़ सकता है। इस चर्चा का उद्देश्य यह जानना है कि स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय के मूल्य आपस में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं और इन्हें पैदा करने वाली या नकारने वाली कुछ पूर्व परिस्थतियां होती हैं। यदि परिस्थितियों को दुरुस्त कर दिया जाए तो मूल्यों को अक्षुण्ण रखा जा सकता है।
चर्चा के लिए प्रश्न-
- आप समाज में ऐसी कौन सी परिस्थितियों को देख पाते हैं जहां लोगों को समान अवसर नहीं मिल पाते हैं?
- किन समूहों को ज़्यादा अवसर मिलते हैं? किन समूहों को कम अवसर मिलते हैं?
- यह कौन तय करता है कि किसे कम या ज्यादा मौके मिलने चाहिए?
- समाज में असमानता के विभिन्न स्वरूप क्या हैं?
- असमानताएं अन्याय को कैसे जन्म देती हैं?
- एक अन्यायपूर्ण समाज कैसे बंधुत्व को मारता है और निजी आजादियों पर बंदिश लगाता है?
प्रशिक्षक डीब्रीफिंग
जिस तरह इस खेल में दी गई पूर्वस्थितियां ही असमानता और अन्याय को पैदा कर रही थीं, उसी तरह हमारे समाज में भी मूल्यों का हनन सामाजिक परिस्थितियों पर निर्भर करता है। जिस तरह खेल की पूर्व परिस्थितियां उसने तैयार कीं जिसने खेल को प्रस्तावित किया, उसी तरह समाज की पूर्व परिस्थितियों को भी वह तय करता है जो समाज को संचालित करता है। समाज को कौन संचालित करता है? राज्य यानी मोटे तौर पर सरकार। राज्य का समाज से क्या रिश्ता है? संविधान का। संविधान वह अनुबंध है जो राज्य और नागरिकों को एक दूसरे से बांधता है। संविधान की प्रस्तावना राज्य के लिए बाध्यकारी है, जिसे नागरिकों ने खुद को आत्मार्पित किया है।
इसलिए, संवैधानिक मूल्यों को लागू करने की पूर्व परिस्थितियां उपयुक्त रहें, सबको समान अवसर मिले, किसी के साथ नाइंसाफी न हो और सद्भाव बना रहे, यह सुनिश्चित करना राज्य का काम है। राज्य ही जब खेल की परिस्थितियां ऐसी तैयार कर दे कि किसी के साथ पक्षपात होने लगे और उसके मन मुताबिक कोई खेल में जीतने या हारने लगे, तब राज्य संविधान से मुकर जाता है। ऐसे में राज्य को पटरी पर लाने यानी खेल की पूर्व परिस्थितियों को दुरुस्त करने की जिम्मेदारी नागरिकों के ऊपर स्वाभाविक रूप से आ जाती है क्योंकि संविधान के मूल्यों को उन्होंने आत्मार्पित किया था।
यानी, अव्वल तो संवैधानिक मूल्यों को लागू करने की जिम्मेदारी राज्य की है। राज्य यदि फेल हो जाए तो उसे पटरी पर लाने की जिम्मेदारी नागरिकों की है।
इसीलिए, राज्य और नागरिकों के बीच एक निरंतर संवाद की जरूरत होती है। इसी संवाद से एक राष्ट्र बनता है। राज्य और नागरिकों का अपनी-अपनी जगह स्वायत्त ढंग से काम करना राष्ट्र नहीं बना सकता। राष्ट्र और राज्य दो अलग चीजें हैं। राष्ट्र के भीतर विविधताएं हैं, पहचानें हैं। उन्हें एक सूत्र में ये मूल्य ही बांधते हैं। जब हम मूल्यों पर आपस में सहमति बना लेते हैं और राज्य की हर कार्रवाई को उसी के पैमाने पर तौलते हुए स्वस्थ संवाद की प्रक्रिया में जाते हैं, तो अपनी विशिष्ट पहचानों के साथ आपस में मिलकर एक राष्ट्र को बनाते हैं।
पहचान, विविधता और उससे बनने वाले राष्ट्र पर आने से पहले हमें यह समझना होगा कि संवाद कैसे करें। संवाद की भूमिका इतनी अहम क्यों है? न केवल राज्य और नागरिकों के बीच, बल्कि नागरिकों के बीच भी निरंतर संवाद क्यों जरूरी है। इस संवाद को लोकतांत्रिक बनाए रखने की शर्तें क्या हैं।
इस पर हम आगे के सत्र में चर्चा जारी रखेंगे।