संवैधानिक मूल्यों पर चर्चाओं में बार–बार उस समय भटकाव आता है जब प्रतिभागी मूल्यों के बजाए संवैधानिक अधिकारों की तरफ फिसल जाते हैं। संवैधानिक मूल्य, संवैधानिक अधिकारों को बचाने, संरक्षित करने और उसके हनन को रोकने की पहली शर्त है। जातिवाद, रूढ़िवादिता, छुआछूत और धर्मान्धता समाज के विकास में बाधक है। यह व्यक्ति⁄समाज⁄समुदाय को खण्ड–खण्ड में बांट देता है। अगर व्यक्ति/समुदाय/समाज में एकजुटता नहीं है तो इसका मायने है कि समाज से बंधुत्व, समानता का मूल्य नदारत है। यदि परिवार/समाज/देश को एकजुट रखना है और सभी लोगों को एक साथ मिल-जुल कर बिना द्वेष और पूर्वाग्रह के रहना है तो व्यक्ति/समाज में यह विचार ले जाना होगा कि जातिवाद, छुआछूत, रूढ़ीवाद, धर्मान्धता समाज और देश की एकता को तोड़ता है। समाज विकास की प्रक्रिया को बाधित करता है। इसलिए सभी को इन समाजिक बुराइयों को छोड़ना होगा, इसके खिलाफ संघर्ष करना होगा। यही विचार जब व्यक्ति/समाज द्वारा आत्मसात किया जाता है और इसे आगे बढाया जाता है तो यह मूल्य के रूप में प्रतिबिम्बित होता है। भूखे को खाना खिलाना, उसकी मदद करना यह एक मानवीय मूल्य है। लेकिन जब हम यह सोचते हैं कि समाज का कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे और उसके लिए प्रयास करते हैं तो यह संवैधानिक मूल्य है। देश का कोई नागरिक भूखा न रहे इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 39 (b) में राज्य को निर्देश दिया गया है।
इसके बरक्स संवैधानिक मूल्यों को लेकर आम जनता में जानकारी का बहुत अभाव है। संवैधानिक मूल्य आम लोगों खासकर ग्रामीण अंचलों में चर्चा का विषय नहीं होता है। मीडिया में खामोशी होती है इसलिए अगर कुछ एक संगठन इस पर काम भी करते हैं तो उनकी चर्चा नहीं होती। प्रोत्साहन की कमी को महसूस किया जा सकता है। शून्य से शुरू करने पर यह मनों के बदलाव का अभियान बन कर रह जाता है जिसका भौतिक रूप तराशना आसान नहीं है। हालांकि आदर्श समाज के निर्माण के लिए संवैधानिक मूल्यों को आत्मसात करते हुए उसे व्यवहार में लाने के सिवा कोई रास्ता नहीं है। आदर्श समाज के निर्माण की प्रक्रिया जितनी सफलता के साथ आगे बढ़ेगी अधिकारों के हनन की घटनाएं उसी अनुपात में कम होंगी और उसके खिलाफ लोगों का उठ खड़ा होना एक स्वभाविक अमल बन जाएगा। इस तरह हम हनन के मामलों में ‘निप इन द बड’ की तरफ बढ़ते दिखाई देंगे, जहां मानवाधिकार और नागरिक अधिकारों का हनन होगा वहीं पर प्रतिरोध की दीवार स्वतः खड़ी हो जाएगी। यह बदलाव संवैधानिक मूल्यों से लैस समाज से ही संभव होगा।
संवैधानिक अधिकार पूर्णतः संज्ञेय हैं और संविधान के विभिन्न अनुच्छेदों में उनको परिभाषित किया गया है। हालांकि कुछ खास परिस्थितियों में प्रशासनिक कारणों से संवैधानिक अधिकारों को सीमित समय के लिए निलंबित रखा जा सकता है। संवैधानिक अधिकारों के उल्लंघन को प्रशासनिक और न्यायिक स्तर पर आसानी से सम्बोधित किया सकता है। राजनीतिक स्तर पर भी अधिकारों के उल्लंघन को आसानी से मुद्दा बनाया जा सकता है और बनाया भी जाता है।
संवैधानिक मूल्यों का उल्लंघन अपने आप में संज्ञेय अपराध नहीं है। आमतौर पर अपराधिक घटनाओं के घटित होने पर उसकी तह में संवैधानिक मूल्यों का हनन पाया जाता है। एससीएसटी के मामलों में जातिसूचक सम्बोधन या महिलाओं के साथ छेड़छाड़ में मामलों में घूर कर देखना संज्ञेय अपराध की श्रेणी में लाया गया है। लेकिन आमतौर पर किसी को घूरना, आंख दिखाना, बंधुत्व की भावना के विपरीत व्यवहार करना संज्ञेय अपराध नहीं है। किसी पर इस बात के लिए मुकदमा दर्ज नहीं करवाया जा सकता कि वह अमुक व्यक्ति के साथ अच्छे रिश्ते नहीं रखता। इसके बावजूद संवैधानिक मूल्यों का दायरा बहुत व्यापक है। एक तरफ यह नीचे से समाज को रूढ़िवादी परंपराओं से मुक्त कर वैज्ञानिक चेतना का निर्माण करता है तो दूसरी ओर संविधान संशोधन और कानून निर्माण के मामले में सरकारों का मार्गदर्शन करता है।
संवैधानिक मूल्य ऐसे मार्गदर्शक तत्व हैं जिनकी अनदेखी कभी नहीं की जा सकती। संवैधानिक मूल्यों को आत्मसात करने और व्यवहार में लाए बिना बेहतर समाज के निर्माण की कल्पना ही नहीं की जा सकती। स्वतंत्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व परस्पर एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। समाज में इन चारों संवैधानिक मूल्यों में से एक को भी कायम किया जाएगा तो अन्य मूल्यों को व्यवहार लाने का मार्ग प्रशस्त करेगा। अगर जनता संवैधानिक मूल्यों से लैस होगी तो वह परंपराओं के नाम पर, जाति–धर्म के आधार पर दूसरों की आज़ादी को बाधित नहीं करेगी। बराबरी के व्यवहार को प्रोत्साहन मिलगा। अगर समाज में न्याय कायम होगा तो आपसी वैमनस्यता कम होने के साथ ही अवसरों की समानता को बढ़ावा मिलेगा। एक दूसरे से संबंध बेहतर होंगे और बंधुता कायम होगी। समाज में यदि किसी के साथ भी अन्याय होता है तो उस अन्याय से समाज एकजुट होकर गंभीरता से निपटेगा। ऐसे में अधिकारों के हनन का मामला हो या कुछ और समाज स्वतः आंदोलित हो जाएगा। संवैधानिक मूल्यों से लैस समाज अपने प्रतिरोध में मर्यादाओं के प्रति संवेदनशील होगा, हिंसक या विघटनकारी कदम कभी नहीं उठाएगा।
संवैधानिक मूल्यों से लैस समाज ही अधिकारों के लिए संघर्ष कर पाता है। इसके बिना प्रतिरोध कभी भी दरक सकता है, आंदोलन बिखर सकता है। उत्तर प्रदेश के आज़मगढ़ जिले में मंदुरी एयरपोर्ट विस्तारीकरण के लिए भूमि अधिग्रहण के खिलाफ चलने वाला आठ गांवों का आंदोलन एक बड़ी मिसाल है। उत्तर प्रदेश के ग्रामीण अंचल में चलने वाला अब तक का यह सबसे मज़बूत और लंबा चलने वाला आंदोलन है। पिछड़ों और दलितों की 90% आबादी वाले इन गांवों में शुरू में सवर्ण महिलाओं ने पिछड़ों और दलितों के साथ बैठने से परहेज़ किया। यहां तक कि पिछड़ों और दलितों में जातीय आधार पर दूरी को महसूस किया जा सकता था। इससे निपटने के लिए कुछ संगठनों के कार्यकर्ताओं ने आठो गांवों के अंदर रोज़ अलग–अलग मीटिंग का सिलसिला शुरू किया। पहले साथ बैठाया उसके बाद सामूहिक भोज का आयोजन कर के साथ में खाना खिलवाया। इस तरह भेदभाव और असमानता की दीवार को तोड़ा, मंचों पर (हर समाज की) महिलाओं को बराबर का अवसर दिया। मेलजोल कायम किया। नतीजा साफ था। प्रशासन की आंदोलनकारियों में फूट डालने की सभी कोशिशें नाकाम हो गयीं। आंदोलित ग्रामवासियों ने हर कठिन समय का डट कर मुकाबला किया। समय बीतने के साथ व्यक्तिगत महत्वकांक्षाओं के चलते बाहर से जाने वाले आंदोलनकारी नेताओं ने आंदोलन पर अपना वर्चस्व कायम करने के लिए जातिवादी भावनाओं को हवा देना शुरू कर दिया। इसमें बह कर गांवों के लोग भी जाति के खांचे में बंटने लगे। नौबत मारपीट की आ गई। लेकिन संवैधानिक मूल्यों से लैस जनता की तादाद ज्यादा निकली और आंदोलन बच गया। यहां इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि संवैधानिक मूल्य विस्थापन के भय से कायम हुआ था। लेकिन इसमें इतनी ताकत आ गई कि आंदोलन को बिखरने से बचा पाए। अगर वास्तव में संवैधानिक मूल्यों को उनकी भावना के अनुरूप आत्मसात किया गया होता तो यह मज़बूती जातीय विष घोलने वालों को पहले ही अलग कर देती। लेकिन यह भी सच्चाई है कि जिस बुनियाद पर भी संवैधानिक मूल्य आए लेकिन आंदोलन को बचा ले गए।
वहीं दूसरी ओर संविधान संशोधन या कानून निर्माण के मामलों सरकारों को संवैधानिक मूल्यों का लिहाज़ रखने की बाध्यता होती है। संविधान का संरक्षक होने के नाते उच्चतम न्यायालय को ऐसे किसी संविधान संशोधन या कानून को रद्द करने का अधिकार प्राप्त है जो संवैधानिक मूल्यों से टकराता हो या जिनमें मूल्यों की अनदेखी की गई हो।
इससे स्पष्ट होता है कि संवैधानिक मूल्यों से लैस समाज सामाजिक–आर्थिक–राजनीतिक स्तर पर बहुत क्रांतिकारी परिवर्तन ला सकता है। जब ऐसे समाज से निकल कर सार्वजनिक सेवा में युवा जाएगा तो निश्चित ही मनमानी करने के बजाए कानून की पासदारी करेगा जिसके नतीजे में भ्रष्टाचार जैसी लानत तो कम होगी ही कमज़ोरों और हाशिए पर खड़े समाज का उत्पीड़न भी रुकेगा और न्याय पाना आसान हो जाएगा। किसी समाज को बदलने के लिए बहुत लम्बा समय दरकार होता है जिसके लिए बिना रुके और बिना थके चलते रहना होगा।