-अनिल के चौधरी और दिलीप उपाध्याय
दो विश्व युद्ध, हिरोशिमा-नागासाकी पर बमबारी, तीसरे रीश का उद्भव और पराभव, औपनिवेशिक शासन का पतन, सोवियत रूस का एक विकल्प के रूप में प्रकट होना और गायब होना, राष्ट्र-राज्य का केंद्र में आना और परे चला जाना, और अंत में वैश्विक आर्थिक तंत्र में सटोरियां पूंजी का बोलबाला – यह सब कुछ महज सौ वर्षों की अवधि में हुआ है। वास्तव में, बीसवीं शताब्दी मानव जीवन के सभी पहलुओं के लिए काफी घटनाप्रद रही है, जिसमें सार्वजनिक मामलों के प्रबंधन की कला यानी राजकाज का क्षेत्र भी शामिल है। अन्य मोर्चों पर भी विकास की चाल दिमाग को झकझोरने वाली रही है।
दुनिया के आर्थिक परिदृश्य पर पूंजीवाद का आविर्भाव लाइसेज़ फाइरे (Laissez Faire,राजकाज में अहस्तक्षेप/अबंध की नीति) वैचारिक आवरण में हुआ लेकिन अपना इरादा पूरा करने के लिए उसे अप्रत्याशित रूप से लंबी अवधि तक इंतजार करना पड़ा। लगातार बदलते भू-राजनीतिक समीकरणों और परिस्थितियों ने पूंजीवाद को तमाम प्रतिद्वंद्वी पर संभावनाशील विचारधारात्मक धाराओं को मात देने के लिए नयी रणनीतियां तैयार करने के लिए बार-बार मजबूर किया। अठारहवीं और उन्नीसवीं शताब्दी में घरेलू पूंजी के विकास ने स्थानीय और क्षेत्रीय न्यायिक बाधाओं को दूर करना जरूरी बना दिया। कानून, मानक, मुद्रा, बाट और माप, कर, सीमा शुल्क, राजनीतिक, धार्मिक और परंपरागत अधिकारों व विशेषाधिकारों में अनगिनत भिन्नताएं भौगोलिक क्षेत्रों के बीच व्यापार और वाणिज्य के लिए बाधा की तरह थीं। इन्हीं बाधाओं से पार पाने की प्रक्रिया में आधुनिक राष्ट्र-राज्य अस्तित्व में आया।
जिस तरह राष्ट्र-राज्य की संरचना तैयार करने के लिए पूंजी को अपने विस्तार की राह में आने वाली अड़चनों को दूर करने की जरूरत पड़ी थी, आज ठीक उसी तरह राष्ट्र-राज्यों के शासन तंत्रों को निष्क्रिय किया जा रहा है ता कि अंतरराष्ट्रीय निगमों के पक्ष में पूंजी के वैश्विक संचय को सुविधाजनक बनाया जा सके। जिन देशों में उपनिवेश विरोधी और साम्राज्यवाद विरोधी आंदोलन हुए हैं वहां भी पूंजी यही काम कर रही है। वैश्विक पूंजी समकालीन अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था को अलग-अलग हिस्सों में तोड़ कर नहीं देखती है बल्कि यह मानती है कि उसकी एक विशिष्ट पहचान है जिसे पूंजीवाद ने गढ़ा है और जिसकी जड़े दुनिया के बाजार में हैं। इस तरह हम पाते हैं कि इतिहास ने बीसवीं सदी का अंत आते-आते पूरा एक चक्कर लगा लिया है।
बीसवीं सदी की शुरुआत में राजनीतिक विमर्श स्वतंत्रता, समानता और लोकतंत्र के मूल्यों से प्रभावित होता था। समय के साथ, इन मूल्यों ने भारत के लोगों की आकांक्षाओं, भारतीय राष्ट्रवाद के विकास और राष्ट्रीय स्वतंत्रता के संघर्ष को आकार देने में भूमिका निभाई। इस तरह का राजनीतिक विमर्श उत्पादक शक्तियों के फलने के साथ फूलने लगा। औपनिवेशिक शासकों के बराबर आने की आकांक्षा ने दोनों को एक-दूसरे का पूरक बना दिया था। विमर्श के भीतर मूल्य वाला परिप्रेक्ष्य न सिर्फ आम लोगों को राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल होने को प्रेरित करता बल्कि उन्हें इतिहास में परिवर्तनकामी वाहकों के रूप में स्थापित भी करता था।
औपनिवेशिक सत्ता द्वारा सांप्रदायिक और धार्मिक आधार पर विभाजन पैदा करने और लोगों की उभरती राष्ट्रीय आकांक्षाओं को कुचलने के प्रयासों को इन मूल्यों की बुनियाद पर ही विफल किया गया था।
बंगाल के विभाजन (1905) के सवाल पर सभी समुदायों को गले लगाते हुए औपनिवेशिक सत्ता के खिलाफ बड़े पैमाने पर पहला लोकप्रिय आंदोलन हुआ। एक प्रशासनिक आवश्यकता के रूप में राज्य द्वारा किया गया यह विभाजन वास्तव में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच एक खाई बनाने, और बढ़ते राष्ट्रवाद के ज्वार को रोकने के लिए किया गया था। यहीं पर बहिष्कार को एक हथियार बनाया गया। ‘विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार’ रैली का नारा बन गया। समुदायों के पार इसकी गूंज स्कूलों में भी सुनी जा सकती थी। बंगाल के विभाजन के खिलाफ संघर्ष के अनुभव के साथ, भारतीय राष्ट्रवाद की अभिव्यक्ति में स्वतंत्रता, समानता और लोकतंत्र के साथ एक महत्वपूर्ण मूल्य के रूप में ‘धर्मनिरपेक्षता’ को आत्मसात किया गया। खिलाफत आंदोलन में भी इसका असर दिखा (1920)।
राष्ट्रीय आंदोलन के भीतर संस्थाओं और प्रक्रियाओं पर आधिपत्य और नियंत्रण के लिए विभिन्न वर्गों और सामाजिक समूहों के बीच भयंकर सत्ता संघर्ष के बावजूद, ये मूल्य जीवन का एक तरीका बने रहे। संघर्ष बढ़ते गए और इस प्रक्रिया में विचारों का एक बहुरंगी इंद्रधनुष बनता गया। स्वतंत्रता, समानता, लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता पर एक अघोषित लेकिन ठोस सहमति उभर रही थी।
किसी भी मुद्दे पर कार्यक्रमों और नीतियों को अपनाने पर गहन बहस होती थी। चाहे वह मौलिक अधिकारों का मुद्दा हो, भूमि सुधार का, किसानों और श्रमिकों का, अधिकारों का, मताधिकार का मुद्दा हो – सभी बहसों के मूल में यही मूल्य होते थे जो केंद्रीय सूत्र का का करते। इस अवधि में श्रमिक मोर्चे पर उल्लेखनीय हड़तालें हुई, कई स्वतः स्फूर्त स्थानीय किसान आंदोलन भड़के, अखिल भारतीय किसान सभा का गठन हुआ, क्षेत्रीय और राष्ट्रीय दोनों स्तरों पर बड़े पैमाने पर जन आंदोलन हुए और राश्ट्रीय स्तर के जन संगठनों का गठन वामपंथी नेतृत्व में हुआ। (1936-46)
विश्व युद्ध के बाद के वर्ष काफी विनाशकारी थे। युद्ध बड़े पैमाने पर मुद्रास्फीति, कालाबाजारी, जमाखोरी और कमी का कारण बना, जिसकी परिणति 1943 में बंगाल में एक विनाशकारी अकाल में हुई। सरकार द्वारा कुप्रबंधन, मुनाफाखोरी ने खाद्य संकट को और बढ़ा दिया। मरने वालों की संख्या चौंका देने वाली थी – इस मानव निर्मित अकाल में 15 से 30 लाख लोग मारे गए। अर्थव्यवस्था चरमरा गई थी, लेकिन खाद्य पदार्थों की बिक्री में मुनाफाखोरी, शेयर बाजार के संचालन और कालाबाजारी में शानदार वृद्धि हुई थी’।
युद्ध के बाद सबसे बड़े और लोकप्रिय उतार-चढ़ाव में से एक 1946 में भारत का नौसेना विद्रोह था। बेहतर भोजन तथा गोरे और भारतीय नाविकों के लिए समान वेतन के मुद्दों पर नौसेना के अफसर हड़ताल पर चले गए। वे सशस्त्र बलों में प्रचलित नस्लभेद का विरोध कर रहे थे। बॉम्बे बंदरगाह में विद्रोही बेड़े ने अपने जहाजों के मस्तूल पर तिरंगा, अर्धचंद्र वाला झंडा और हंसिया-हथौड़ा वाला झंडा फहराया। जल्द ही हड़ताल 78 जहाजों, 20 तटीय प्रतिष्ठानों और 20,000 सैनिकों में फैल गई। आम लोगों, हिंदू और मुस्लिम कार्यकर्ताओं और छात्रों ने सड़कों पर सेना और पुलिस के साथ संघर्ष कर के अपना समर्थन प्रदर्शित किया। लगभग एक लाख मजदूरों ने विद्रोह के समर्थन में कामबंदी कर दी।
औपनिवेशिक शासकों से राष्ट्रीय नेतृत्व को ‘एक समझौते के तहत हुए सत्ता हस्तांतरण’ की प्रक्रिया ने देश का सांप्रदायिक बंटवारा कर के भारतीय राष्ट्रवाद के ताने-बाने एक स्थायी चोट पहुंचा दी। यह उन मूल्यों के लिए एक गंभीर झटका था जिसे वर्षों से इतनी मेहनत से पोषित किया गया था। सभी बाधाओं से जूझते हुए, मौजूदा राष्ट्रीय नेतृत्व आग बुझाने में सक्षम हुआ, लेकिन साम्प्रदायिक नरसंहार के निशान आज भी सताते हैं और राजनीतिक प्रक्रियाओं पर इसके प्रभाव समकालीन भारत में भी महसूस किए जा सकते हैं। हालांकि विभाजन और इसके साथ आने वाली दुखद घटनाओं ने भारतीय उपमहाद्वीप में परंपरागत ‘शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और सांस्कृतिक संश्लेषण’ की भावना में गंभीर सेंध लगाई, लेकिन विभाजन के बाद भारत को एक धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक राज्य बनाने की अपनी खोज में इस प्रलय से उबरना था।
अगस्त 1947 और जनवरी 1950 के बीच की अवधि वह समय था जब राष्ट्रीय स्वतंत्रता के संघर्ष को निर्देशित करने वाले मूल्यों धर्मनिरपेक्षता, स्वतंत्रता, लोकतंत्र और समानता का संस्थानीकरण किया गया। संस्थानीकरण की प्रक्रिया एक सहज प्रयास नहीं थी, उसमे कई झटके आए। फिर भी राजनीति न केवल हमलों का सामना करने में सक्षम थी, बल्कि इन मूल्यों को बनाए रखने में एक निश्चित दृढ़ता उसने दिखाई। भारत की स्वतंत्रता ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उपनिवेशों की मुक्ति की प्रक्रिया का आरंभ किया। संसद द्वारा अपनाए गए भारत के संविधान ने इस मूल्यों के परिप्रेक्ष्य को बरकरार रखा।
राष्ट्रीय आंदोलन में परिधि पर रहीं कट्टरपंथी ताकतों को स्वतंत्र भारत में एक नया जीवन मिला और 1952 में उनकी पहली राजनीतिक पार्टी जनसंघ का गठन सांप्रदायिक विभाजन का फायदा उठाने के लिए किया गया, जिसके आने वाले समय में विनाशक परिणाम हुए।