अनुवाद: अभिषेक श्रीवास्तव
मेरा यह व्याख्यान आश्चर्यजनक रूप से एक बिल्कुल नए विषय पर है।* हम लोग ”सामूहिक पहचान”(कलेक्टिव आइडेंटिटी), ”पहचान समूह” (आइडेंटिटी ग्रुप्स), ”पहचान की राजनीति” (आइडेंटिटी पॉलिटिक्स), या फिर कहें कि ”जातीयता” (एथनिसिटी) जैसे शब्दों के इतनी आदी हो गए हैं कि यह याद करना मुश्किल हो चला है हमारे राजनीतिक विमर्श की शब्दावली में इन्हें शामिल हुए कितना वक्त हुआ। मसलन, यदि आप इंटरनेशन एनसाइक्लोपीडिया ऑफ सोशल साइंसेज़ में देखें जो 1968 में प्रकाशित हुई थी- यानी यह साठ के दशक के मध्य में लिखी गई रही होगी- तो आपको आइडेंटिटी नाम की कोई प्रविष्टि नहीं मिलेगी, सिवाय एरिक एरिक्सन द्वारा वर्णितसाइकोसोशल आइडेंटिटी (मनोसामाजिक पहचान) के, जिनका मुख्य सरोकार उन नवजात शिशुओं के तथाकथित आइडेंटिटी क्राइसिस (पहचान के संकट) जैसी चीज़ों से था जो अपनी पहचान खोजने की कोशिश कर रहे होते हैं कि वे क्या हैं। इसके अलावा मतदाताओं के आइडेंटिफिकेशन (पहचान के तरीके) पर एक सामान्य सी टिप्पणी है। जहां तक एथनिसिटी की बात है, तो 1970 के दशक की शुरुआत वाली ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी में भी यह एक दुर्लभ शब्द की तरह आता है जिसका इशारा अल्पसंख्यकता (व्यापक रूप से स्वीकृत धर्म से ताल्लुक न रखना) या अल्पसंख्यकों के अंधविश्वासों की ओर है, जिसे पुष्ट करने के लिए अठारहवीं सदी के कुछ उद्धरण एकत्रित किए गए हैं।
संक्षेप में कहें तो हम ऐसे शब्दों और अवधारणाओं की बात कर रहे हैं जिनका प्रयोग वास्तव में साठ के दशक में ही होना शुरू हुआ। इनका उभार अमेरिका में सबसे आसानी से एक प्रचलन बन गया क्योंकि यह हमेशा से ही एक ऐसा समाज रहा है जो असामान्य तौर पर अपने सामाजिक व मनोवैज्ञानिक ताप, रक्तचाप तथा अन्य लक्षणों पर निगरानी रखने में दिलचस्पी लेता रहा है और विशेष तौर पर ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि पहचान की राजनीति का सबसे स्वाभाविक स्वरूप (लेकिन इकलौता नहीं) यानी जातीयता हमेशा से अमेरिकी राजनीति के केंद्र में रहते आई चूंकि यूरोप के सभी हिस्सों से यहां बड़े पैमाने पर आव्रजन हुआ। यह नई जातीयता मोटे तौर पर पहली बार ग्लेज़र और मॉयनिहान की 1963 में आई पुस्तक बियॉन्ड दि मेल्टिंग पॉट में सार्वजनिक रूप से अभिव्यक्त हुई और 1972 आते-आते माइकल नोवाक की पुस्तक दि राइज़ ऑफ दि अनमेल्टेबल एथनिक्स में इसने एक आक्रामक योजना की शक्ल ले ली। मुझे आपको यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि पहली पुस्तक एक यहूदी प्रोफेसर और एक आयरिश लेखक की थी, जो आज न्यूयॉर्क में डेमोक्रेट पार्टी के वरिष्ठ सीनेटर हैं। दूसरी पुस्तक लिखने वाले सज्जन स्लोवाक मूल के कैथॉलिक थे। फिलहाल, हमें इस पर सिर खपाने की ज़रूरत नहीं है कि यह सब कुछ साठ के दशक में ही क्यों हुआ, लेकिन मैं आपको याद दिलाना चाहूंगा कि- कम से कम अमेरिका की धरती पर- यह दशक पहचान की राजनीति के दो और संस्करणों के उभार का गवाह रहा: आधुनिक (मताधिकार प्राप्त होने के बाद वाला) स्त्री आंदोलन और समलैंगिक आंदोलन।
मैं यह नहीं कह रहा कि साठ के दशक से पहले अपनी सार्वजनिक पहचान के बारे में कोई सवाल नहीं उठाता था। अनिश्चय भरी परिस्थितियों में लोग अकसर ऐसा करते थे, मसलन फ्रांस में लोराइन की औद्योगिक पट्टी में, जहां एक सदी के भीतर पांच बार आधिकारिक भाषा और राष्ट्रीयता बदली गई और जहां का ग्रामीण जीवन एक औद्योगिक अर्ध-शहरी जीवन में बदल गया जबकि पिछली डेढ़ सदी में उसकी सरहदों को सात बार बदला गया। वहां के लोग जो कहते थे उसे सुनकर आश्चर्य नहीं होना चाहिए, ”बर्लिन वाले जानते हैं कि वे बर्लिन से हैं, पारीसियन जानते हैं कि वे पारीसियन हैं, लेकिन हम कौन हैं?” या फिर, एक और साक्षात्कार को सुनिए, ”मैं लोराइन से आता हूं, मेरी संस्कृति जर्मन है, मेरी राष्ट्रीयता फ्रेंच है और मैं अपनी स्थानीय बोली में सोचता हूं।” दरअसल, इन चीज़ों ने पहचान की वास्तविक समस्या तब खड़ी कर दी जब लोगों को एकाधिक मिश्रित पहचान वाला होने से रोका गया, जो कि हम सभी के मामले में स्वाभाविक है। या कहें, ऐसा कहीं ज्यादा तब हुआ जब उन्हें उनके ”अतीत और सभी समान सांस्कृतिक गतिविधियों से” अलग कर दिया गया। साठ के दशक तक हालांकि अनिश्चित पहचान से जुड़ी ऐसी समस्याएं कुछ विशिष्ट सियासी सरहदों तक ही सीमित रही थीं। ये समस्याएं केंद्र में नहीं थीं।
ऐसा लगता है कि ये समस्याएं साठ के दशक के बाद से ही ज्यादा केंद्रीय भूमिका लेती गईं। ऐसा क्यों हुआ? इसमें कोई शक नहीं कि प्रत्येक देश की राजनीति और उसके संस्थानों में ही इसका विशिष्ट कारण निहित है- मसलन, अमेरिका में उसके संविधान द्वारा लादी गई अजीबोगरीब प्रक्रियाएं- जैसे, पचास के दशक में आया नागरिक अधिकारों पर फैसला जिसे पहले तो अश्वेतों पर लागू किया गया और फिर महिलाओं तक विस्तारित किया गया, जिसने अन्य पहचान समूहों को एक प्रारूप (मॉडल) मुहैया कराने का काम किया। जिन देशों में राजनीतिक दल वोट हासिल करने की प्रतिस्पर्धा में जुटे होते हैं, वहां इसका सीधा निहितार्थ यह निकलता है कि किसी विशेष पहचान समूह से खुद को जोड़ने के ठोस राजनीतिक लाभ मिलते हैं: मसलन, ऐसे समूहों के सदस्यों के प्रति पक्षपात, नौकरियों में कोटा इत्यादि। अमेरिका में भी यही स्थिति है, लेकिन वह इकलौता नहीं है। मसलन, भारत में, जहां की सरकार सामाजिक समता लाने के लिए प्रतिबद्ध है, खुद को निचली जाति या किसी मूलनिवासी कबीलाई समूह के रूप में चिह्नित करवाए जाने के वास्तविक लाभ मिलते हैं, जिससे आप इन समूहों को नौकरियों में मिली अतिरिक्त गारंटी का लाभ ले सकते हैं।
एकाधिक पहचान को वर्जित किया जाना
मेरे खयाल से पहचान की राजनीति का उभार इस सदी के तीसरे चौथाई हिस्से में इंसानी समाज में असामान्य रूप से हुए तीव्र उथल-पुथल और बदलावों का नतीजा है, जिसे मैंने बीसवीं सदी के इतिहास पर लिखी अपनी पुस्तक एज ऑफ एक्सट्रीम्स के दूसरे हिस्से में विस्तार से समझने और समझाने की कोशिश की है। यह अकेले मेरी राय नहीं है। मसलन, अमेरिकी समाजशास्त्री डेनियल बेल ने 1975 में ही ददलील दी थी कि ”वर्चस्व की पारंपरिक संरचनाओं और अतीत की प्रभावशाली सामाजिक इकाइयों- यानी ऐतिहासिक रूप से राष्ट्र और वर्ग- का टूटना जातीयता बोध को ज्यादा रेखांकित करता है।”
हम दरअसल यह जानते हैं कि इन्हीं बदलावों के कारण राष्ट्र-राज्य और वर्ग आधारित पुरानी राजनीतिक पार्टियां व आंदोलन कमज़ोर पड़े हैं। इससे कहीं ज्यादा बड़ी बात यह है कि हम आज एक वृहद ”सांस्कृतिक क्रांति” के दौर से गुज़र रहे हैं, जिसमें ‘सामाजिक मानकों, बुनावट, मूल्यों का असामान्य रूप से क्षरण हुआ है, जिसने विकसित दुनिया के जाने कितने बाशिंदों को वंचित और अकेला छोड़ दिया।’ मैं अपनी ही कही बात दुहराऊं, तो ”कभी भी ‘समुदाय’ (कम्यूनिटी) शब्द का इस्तेमाल इतने खोखले और सपाट ढंग से नहीं किया गया था जितना इन दशकों में किया गया है जबकि समाजशास्त्रीय अर्थ में देखें तो वास्तविक जीवन में ‘समुदायों’ की तलाश इधर ही सबसे ज्यादा कठिन होती चली गई है।” एक ऐसी दुनिया में जहां सब कुछ गतिमान है, अस्थिर है और कुछ भी सुनिश्चित नहीं, लोग ऐसे समूहों की तलाश में लगे हैं जो जिससे वे खुद को स्थायी और निश्चित तौर पर जुड़ा बता सकें। उनकी तलाश पहचान समूहों पर जाकर खत्म होती है। और यहीं एक अजीब विरोधाभास जन्म लेता है, जिसकी पहचान कैरीबियाई मूल के तीक्ष्ण समाजशास्त्री हारवर्ड के ओरलांदो पैटरसन ने इस तरह की है: लोग एक पहचान समूह का होना चुनते हैं, लेकिन ‘यह ऐसा चुनाव है जो इस दृढ़ और तीव्र विश्वास से निर्दिष्ट होता है कि व्यक्ति के पास दरअसल उस विशिष्ट समूह का होने के अलावा कुछ चुनने का और कोई विकल्प ही नहीं है।’ कभी-कभार तो यह दिखाया जा सकता है कि यह एक चुनाव होता है। मसलन, 1960 से 1990 के बीच खुद को ‘अमेरिकन इंडियन’ या ‘नेटिव अमेरिकन’ बताने वाले अमेरिकियों की संख्या पांच लाख से बढ़कर बीस लाख तक यानी तकरीबन चार गुना हो गई थी। अब इसे सामान्य जनांकिकीय विश्लेषण से समझाना बहुत मुश्किल है। चूंकि 70 फीसदी ‘नेटिव अमेरिकन’ संयोगवश अपनी नस्ल से बाहर विवाह करते हैं, इसलिए जातीय स्तर पर कौन वास्तव में ‘नेटिव अमेरिकन’ है, यह समझ से परे है।
तो आखिर इस सामूहिक ‘आइडेंटिटी’ से, एक प्राथमिक समूह का होने की भावना से, जो कि उसका आधार है, हमें क्या समझ आता है? मैं चार बिंदुओं की ओर आपका ध्यान आकृष्ट करना चाहूंगा।
सबसे पहली बात, सामूहिक पहचानें नकारात्मक रूप से परिभाषित की जाती हैं- यानी दूसरों के खिलाफ। ‘हम’ खुद को ‘आपसी’ इसलिए समझते हैं क्योंकि हम ‘उनसे’ अलग हैं। अगर ‘वे’ नहीं होते जिनसे कि हम अलग हैं, तो हमें यह पूछने की जरूरत नहीं पड़ती कि कि ‘हम’ कौन हैं। दूसरे शब्दों में, सामूहिक पहचानें अपने सदस्यों के बीच पाई जाने वाली समानताओं पर आधारित नहीं होती हैं- उनके बीच शायद बहुत कम समानता हो, सिवाय इसके कि वे ‘दूसरों’ से अलग नहीं हैं। बेलफास्ट के यूनियनिस्ट या नेशनलिस्ट, या कि सर्ब, क्रोश और मुस्लिम बोस्नियाई, जिनके बीच वैसे तो फर्क करना मुश्किल होता- चूंकि वे एक ही भाषा बोलते हैं, इनकी समान जीवनशैली है, समान चेहरा-मोहरा और आचार-व्यवहार है- सिर्फ एक ही चीज़ पर ज़ोर देते हैं जो उन्हें बांटती है- धर्म। इसके उलट विभिन्न किस्म के मुस्लिमों, रोमन और ग्रीक कैथॉलिकों, ग्रीक रूढि़पंथियों और अन्य- जो अपने लेबनानी पड़ोसियों की तरह अलग-अलग परिस्थितियों में आपस में लड़ भी सकते हैं- की मिश्रित आबादी को फलस्तीनी के रूप में क्या चीज़ एक सूत्र में बांधती है? सामान्य सी बात, कि वे इज़रायली नहीं हैं, और इज़रायली नीति लगातार उन्हें ऐसा अहसास भी कराती रहती है।
बेशक, ऐसी सामूहिकताएं भी हैं जो अपने सदस्यों के बीच मौजूद समान लक्षणों पर आधारित हैं, जिसमें लैंगिकता या राजनीतिक रूप से संवेदनशील शारीरिक लक्षण जैसे त्वचा का रंग इत्यादि है। हालांकि अधिकतर सामूहिक पहचानें त्वचा के बजाय कपड़े की तरह होती हैं, जो कम से कम सैद्धांतिकी के स्तर पर वैकल्पिक हैं और उनसे बचा नहीं जा सकता। अपने शरीर के प्रत्येक अंग के हिसाब से आज मौजूद फैशन के दौर में भी इतनी तो आसानी है ही कि दूसरी बांह लगा लेने के बजाय दूसरी शर्ट ही पहन ली जाय। अधिकतर पहचान समूह वस्तुपरक भौतिक समानताओं या अंतर पर आधारित नहीं होते, हालांकि ये सभी खुद को एक सामाजिक निर्मिति के बजाय ‘प्राकृतिक’ बताना पसंद करते हैं। ज़ाहिर है, सारे जातीय समूह तो ऐसा करते ही हैं।
इसी से दूसरी बात निकलती है कि वास्तविक जीवन में पहचानों को कपड़ों की तरह बदला जा सकता है या एक विशिष्ट कपड़े के बजाय मिलाजुला कर पहना जा सकता है। चुनाव पूर्व लोगों के बीच जाकर उनकी राय जानने वाला हर व्यक्ति अच्छे से जानता है कि किसी की भी सिर्फ एक पहचान नहीं होती। सरकारी कामकाज के लिहाज से भी इंसान का विवरण एकाधिक पहचान के साथ ही दिया जा सकता है, और कोई चारा नहीं। लेकिन पहचान की राजनीति यह मानकर चलती है कि हम सभी की जितनी पहचानें हैं, उनमें से सिर्फ एक पहचान ही हमारी राजनीति को तय करती है, या कम से कम प्रभावशाली है: मतलब कि अगर आप स्त्रीवादी हैं तो आप स्त्री हैं, यदि आप एंट्रिम यूनियनिस्ट हैं तो प्रोटेस्टेंट हैं, यदि केटलन नेशनलिस्ट हैं तो ज़ाहिर तौर पर केटलन हैं, अगर आप समलैंगिकता के आंदोलन से जुड़े हैं तो आपको समलैंगिक होना होगा। ज़ाहिर है, फिर आपको बाकी चीज़ों से छुटकारा पाना होगा क्योंकि वे आपकी असली ‘आप’ के साथ बेमेल हैं। इसीलिए हरफनमौला बुद्धिजीवी और निंदाप्रेमी डेविड सेलबोर्न इंग्लैंड के यहूदियों से आह्वान करते रहते हैं कि वे ‘अंग्रेज़ बनने का नाटक छोड़ें’ और मानें कि उनकी ‘वास्तविक’ पहचान एक यहूदी की है। यह बेहद खतरनाक और बेहूदा बात है। जब तक आपको कोई बाहरी ताकत नहीं कह देती हो कि आप एक साथ दोनों नहीं हो सकते, या फिर जब तक भौतिक रूप से ऐसा असंभव न हो जाए, तब तक व्यावहारिक स्तर पर बेमेल होने का सवाल ही नहीं उठता। अगर मैं चाहूं कि एक साथ मुझे एक समर्पित कैथॉलिक, यहूदी और बौद्ध होना है तो मैं ऐसा क्यों नहीं कर सकता? भौतिक रूप से सिर्फ एक चीज़ मुझे ऐसा करने से रोक सकती है कि इन धर्मों के अधिकारी मुझे यह कह सकते हैं कि मैं ऐसी खिचड़ी नहीं पका सकता, या फिर इन सभी के कर्मकांड एक साथ करना ही असंभव हो जाए क्योंकि कोई एक किसी दूसरे के आडे आता हो।
लोगों को आम तौर पर अपनी पहचानें मिश्रित करने में कोई दिक्कत नहीं होती है और यही चीज़ सामान्य राजनीति का आधार भी है, बजाय किसी एक तबके वाली पहचान की राजनीति के। लोग अकसर पहचानों के बीच चयन करने को लेकर भी कुछ सोचते नहीं, क्योंकि या तो कोई उनसे ऐसा करने को नहीं कहता या फिर यह काम ही इतना जटिल होता है। अमेरिका के लोगों से जब उनकी मूल जातीयता पूछी जाती है, तो 54 फीसदी या तो इसका जवाब नहीं दे पाते हैं या फिर इनकार कर देते हैं। संक्षेप में कहें तो विशिष्ट पहचान की राजनीति लोगों तक स्वाभाविक तौर पर चल कर नहीं आती है। ज्यादा संभावना यही होती है कि उसे बाहर से लोगों के ऊपर थोपा जाए- जिस तरीके से बोस्निया के सर्ब, क्रोश और मुस्लिम निवासियों को जबरन अलग कर दिया गया है, जो कभी एक समाज के भीतर साथ रहते थे और आपस में शादियां करते थे।
तीसरी बात मैं यह कहना चाहूंगा कि अगर आपने तमाम संभावित पहचानों में से किसी एक को चुन ही लिया है, जैसा कि माइकल पोर्टिलो ने स्पेनिश की जगह इंग्लिश को चुना है, तो भी पहचानें, या उनकी अभिव्यक्ति, स्थिर नहीं रहती हैं। ये बदलती रहती हैं, और जरूरत पड़ने पर एक से ज्यादा बार ऐसा हो सकता है। मसलन, ऐसे गैर-जातीय समूह (नॉन एथनिक ग्रुप्स) जिनके सभी या अधिकतर सदस्य अश्वेत या यहूदी हों, सचेतन रूप से जातीय समूहों में बदल सकते हैं। मार्टिन लूथर किंग के नेतृत्व में सदर्न क्रिश्चियन बैपटिस्ट चर्च के साथ ऐसा ही हुआ था। इसका उलट भी मुमकिन है, जैसे आधिकारिक आइआरए ने खुद को फेनियन नेशनलिस्ट से एक वर्ग संगठन में तब्दील कर लिया, जो कि अब वर्कर्स पार्टी है और आयरिश गणराज्य की गठबंधन सरकार का हिस्सा है।
पहचान के बारे में चौथी और आखिरी बात मुझे यह कहनी है कि यह संदर्भ पर निर्भर होती है, और संदर्भ बदल सकता है। हमारे पास 1920 के दशक के ऑक्फोर्ड-कैम्ब्रिज के समलैंगिक समुदाय के पैसा पाने वाले कार्डधारी सदस्यों का उदाहरण है जो 1929 की महामंदी और हिटलर के उभार के बाद होमिनटर्न से कोमिनटर्न की ओर ‘शिफ्ट’ (उन्हें ऐसा ही कहलाया जाना पसंद है) हो गए। नतीजतन, बुर्गेस और ब्लंट ने अपनी समलैंगिकता को सार्वजनिक दायरे से निजी दायरे में ला दिया। या फिर जर्मन प्रोटेस्टेंट विद्वान पेटर का उदाहरण लें जो लंदन में क्लासिक्स के प्रोफेसर थे, जिनको हिटलर के उभार के बाद अचानक इलहाम हुआ कि उन्हें भाग जाना चाहिए क्योंकि नाज़ी कसौटी पर वे वास्तव में यहूदी थे- और इस तथ्य से वे तब तक अनजान थे। उन्होंने पीदे अपनी जो भी पहचान तय की रही हो, अब उन्हें एक बिल्कुल अलहदा पहचान की तलाश करनी पड़ रही थी।
वाम की सार्वभौमिकता
इस सब का वामपंथ से क्या लेना-देना है? बेशक, पहचान समूह कभी भी वामपंथ के केंद्र में नहीं रहे। अमेरिकी और फ्रांसीसी क्रांति से प्रेरित सामाजिक वाम जनांदोलन और राजनीतिक वाम आंदोलन दरअसल गठजोड़ थे या समूहों का गठबंधन थे लेकिन इन्हें किसी एक समूह विशेष का उद्देश्य नहीं बांधता था बल्कि वे महान सार्वभौमिक सरोकार थे जिनके रास्ते हरेक समूह को लगता था कि उसका अपना उद्देश्य साकार हो जाएगा: मसलन, लोकतंत्र, गणराज्य, समाजवाद, साम्यवाद, जो भी कहिए। हमारी अपनी लेबर पार्टी भी उन दिनों में एक वर्ग की पार्टी हुआ करती थी और साथ में अल्पसंख्यक राष्ट्रों व बरतानियों के बीच पाए जाने वाले प्रवासी समुदायों की भी पार्टी थी। इसमें सब कुछ एक साथ इसलिए था क्योंकि यह पार्टी समानता और सामाजिक न्याय वाली पार्टी थी।
इसके अनिवार्यत: वर्ग आधारित होने के दावे को हमें गलत तरीके से नहीं लेना चाहिए। मजदूरों के राजनीतिक आंदोलन और समाजवादी आंदोलन कहीं भी और कभी भी अनिवार्यत: मार्क्सवादी संदर्भ में सर्वहारा के आंदोलन नहीं रहे। शायद ब्रिटेन इसका एक अपवाद है, जब 1880 और 1890 के दशकों में मजदूरों और समाजवादियों के दल वहां अचानक उभरे हालांकि औद्योबिक मजदूरों का तबका अधिकतर देशों में अल्पसंख्यक ही था और वैसे भी उसका अधिकतर हिस्सा समाजवादी मजदूर संगठनों के दायरे से तब तक बाहर ही था। बहरहाल, यही वजह थी कि ऐसे आंदोलन इतने बड़े बन सके। याद करें कि प्रथम विश्व युद्ध तक डेनमार्क, स्वीडन और फिनलैंड में सामाजिक जनवादियों को 30 से 47 फीसदी के बीच वोट मिले जबकि इन देशों में जर्मनी (यहां लेबर पार्टी को सबसे ज्यादा वोट 1951 में 48 फीसदी मिला था) समेत बमुश्किल ही औद्योगीकरण हो सका था। इसके अलावा, मजदूरों के आंदोलन में केंद्रीय रूप से मौजूद समाजवादी सरोकार किसी एक तबके का सरोकार नहीं था। ट्रेड यूनियनें बेशक दिहाड़ी मजदूरों के कुछ तबकों के हितों की बात करती थीं, लेकिन मजदूर दलों, समाजवादी दलों और इनसे जुड़ी यूनियनों के बीच रिश्ते अगर हमेशा किसी न किसी समस्या से ग्रस्त होते, तो उसकी एक वजह यही थी कि आंदोलन का उद्देश्य यूनियनों के अपने उद्देश्य से ज्यादा व्यापक था। समाजवादी दलील सिर्फ यही नहीं थी कि अधिकतर लोग ”शारीरिक या मानसिक रूप से श्रमिक होते हैं” बल्कि यह थी कि समाज के बदलाव में मजदूरों की अनिवार्यत: ऐतिहासिक भूमिका है। इसलिए आप चाहे जो भी रहे हों, यदि आपको भविष्य चाहिए था, तो आपको मजदूर आंदोलन के साथ जाना ही पड़ता था।
अब इसे उलट कर देखें। मजदूर आंदोलन जब खत्म होते-होते औद्योगिक मजदूरों के एक तबके के आंदोलन या कहें दबाव-समूह तक सीमित रह गया, जैसा कि ब्रिटेन में सत्तर के दशक में हुआ, तो आम जनता को संगठित करने और भविष्य के लिए उम्मीद जगाने वाले आंदोलनों में संभावित केंद्रीयता हासिल करने की अपनी क्षमता इसने खो दी। आक्रामक ‘अर्थवादी’ ट्रेड यूनियनवाद ने खुद से अलग लोगों को इस हद तक अपने प्रति कटु बना डाला कि वह थैचर के टोरीवाद का सबसे मजबूत तर्क बनकर उसे ही अभिपुष्ट करने लगा। इसने ”एक राष्ट्र” की बात करने वाली परंपरावादी टोरी पार्टी को हिंसात्मक वर्ग-युद्ध पैदा करने वाली एक ताकत में तब्दील करने का बहाना मुहैया करा डाला। इतना ही नहीं, सर्वहारा में उभरी पहचान की इस राजनीति ने न सिर्फ मजदूर वर्ग को अलग-थलग छोड़ दिया बल्कि मजदूरों के एक समूह को दूसरे समूह के खिलाफ खड़ा कर के इसने मजदूर तबके के भीतर फांक पैदा कर दी।
तो सवाल उठता है कि आखिर पहचान की राजनीति का वाम से क्या लेना-देना? मैं एक बात बहुत मज़बूती से कह देना चाहता हूं और इसे मुझे दुहराने की ज़रूरत नहीं पड़नी चाहिए। वामपंथ की राजनीतिक परियोजना सार्वभौमवादी है: यह सभी मनुष्यों के लिए है। शब्दों की व्याख्या आप जैसे चाहे करें, यह सिर्फ इसके हिस्सेदारों या अश्वेतों की मुक्ति की परियोजना नहीं, बल्कि सभी की मुक्ति के लिए है। यह सिर्फ गैरिक क्लाब के सदस्यों अथवा विकलांगों के बीच समानता नहीं, बल्कि सभी की समानता की परियोजना है। यह सिर्फ पुराने एतोनियाइयों या समलैंगिकों के साथ भाईचारे की परियोजना नहीं, सबके बीच भाईचारे के लिए है। जबकि पहचान की राजनीति अनिवार्यत: सभी के लिए नहीं है बल्कि एक विशिष्ट समूह के सदस्यों के लिए है। जातीय या राष्ट्रवादी आंदोलनों में यह साफ ज़ाहिर है। यहूदियों का जियोनिस्ट राष्ट्रवाद सिर्फ और सिर्फ यहूदियों के लिए है, बाकी को वे लटका देंगे या फिर बम से उड़ा देंगे- हमें पसंद आए या न आए कोई मायने नहीं रखता। हर किस्म का राष्ट्रवाद ऐसा ही है। जो भी राष्ट्रवाद यह दावा करता है कि वह सभी के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थक है, वह थोथा है।
यही कारण है कि पहचान की राजनीति को वामपंथ अपना आधार नहीं बना सकता। इसका एजेंडा वृहद है। वाम राजनीति के लिए आयरलैंड ऐतिहासिक रूप से एक ही इकाई था, भले उसने तमाम किस्म की शोषित और उत्पीडि़त मानवताओं का संघर्ष लड़ा हो। आइआरए किस्म के राष्ट्रवाद के लिए जबकि वाम पहले भी और अब भी कुछ विशेष परिस्थितियों में उसके उद्देश्यों की पूर्ति के लिए महज़ एक सहयोगी की भूमिका में ही रहा है। दूसरों के मामले में देखिए, तो द्वितीय विश्व युद्ध के वक्त यह हिटलर का समर्थन करने को भी तैयार था और उसके कुछ नेताओं ने ऐसा किया भी था। यह बात हर उस समूह पर लागू होती है जो पहचान की राजनीति को अपना आधार बनाता है, चाहे वह जातीय समूह हो अथवा कुछ और।
अब वाम के वृहद एजेंडे पर आएं। ज़ाहिर तौर से यह समय-समय पर कई पहचान समूहों को समर्थन देता रहा है और वे भी पलट कर वाम की ओर देखते ही हैं। वास्तव में इस किस्म के कुछ गठजोड़ तो इतने पुराने और करीबी हैंकि जब ये टूटते हैं तो वाम ताकतों को वैसा ही अचरज होता है जैसा जिंदगी भर चली शादियां टूटने पर आम लोगों को। मसलन, अमेरिका में अब ‘एथनिक्स’ (गरीब प्रवासियों और उनके वंशजों का समूह) डेमोक्रेटिक पार्टी को अपने आप वोट देना बंद कर चुके हैं। यह तकरीबन अस्वाभाविक जान पड़ता है। यह अपने आप में अद्भुत बात है कि एक अश्वेत अमेरिकी रिपब्लिकन पार्टी से राष्ट्रपति पद के लिए खड़ा होने की बात सोच भी ले (मेरे दिमाग में अभी कालिन पावेल हैं)। बावजूद इसके, डेमोक्रेटिक पार्टी के भीतर मौजूद आयरिश, इटैलियन, यहूदी और अश्वेतों के समान हित उनकी अपनी-अपनी जातीयताओं से नहीं निकले हैं- ये अलग बात है कि व्यावहारिक राजनीति करने वाले नेता इन्हीं जातीयताओं को उकसाते हैं। इनके बीच एकता कायम रखने वाली चीज दरअसल समता और सामाजिक न्याय की भूख है, एक ऐसा समान कार्यक्रम जो कि इन दोनों उद्देश्यों को आगे बढ़ा पाने में सक्षम हो।
समान हित
यही वह चीज़ है जिसे वाम धारा के अधिकतर लोग भुला देते हैं जब वे पहली बार पहचान की राजनीति के गहरे पानी में डुबकी लगाते हैं। सत्तर के दशक से ही वाम को अनिवार्यत: अल्पसंख्यक समूहों और हितों के एक गठजोड़ के रूप देखे जाने का एक चलन बना है, जो कि बढ़ता ही गया है: जैसे नस्ल, लैंगिकता, यौनिकता अथवा अन्य सांस्कृतिक प्राथमिकताओं और जीवनशैलियों पर आधारित समूह या हित, यहां तक कि आर्थिक अल्पसंख्यकता के आधार पर बने समूह भी, मसलन पुराने औद्योगिक मजदूर। यह खतरनाक है।
पहले मैं कुछ बातें दुहरा लूं: पहचान समूह अपने बारे में होते हैं, अपने लिए होते हैं, अन्य किसी के लिए भी नहीं। किन्हीं ऐसे समूहों का एक गठबंधन जो समान लक्ष्यों या मूल्यों से नहीं बंधा हो, उसकी एकता अस्थायी होती है, बिल्कुल जंग में एक ही दुश्मन के खिलाफ एक साथ आए कुछ राज्यों की एकता की तरह। इन्हें एक साथ नहीं रखा गया तो एकता टूट जाती है। ठीक ऐसे ही पहचान समूह भी वामपंथी राजनीति को लेकर कोई प्रतिबद्ध नहीं होते बल्कि अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए वे जहां जरूरत होती है उससे सहयोग ले लेते हैं। हम मानते हैं कि महिलाओं के सशक्तीकरण का सरोकार वामपंथी राजनीति के करीब है, और बेशक ऐसा मार्क्स व एंगेल्स से भी पहले समाजवाद की शुरुआत के समय से ही है। बावजूद इसके, 1914 से पहले ब्रिटेन में मताधिकार का आंदोलन ऐतिहासिक रूप से सभी तीन दलों का आंदोलन था और हम सब जानते हैं कि वहां पहली महिला सांसद टोरी पार्टी से थी।
दूसरे, मुहावरेबाज़ी वे चाहे जो करें, लेकिन पहचान की राजनीति वाले वास्तविक संगठन और आंदोलन सिर्फ अल्पसंख्यकों को संगठित करते हैं, और ऐसा वे कानून और जबर की ताकत अपने हाथ में आने तक किसी भी रफ्तार से कर सकते हैं। राष्ट्रीयता की इनकी भावना सार्वभौमिक लग सकती है, लेकिन जहां तक मेरी जानकारी है लोकतांत्रिक राज्यों में कोई भी अलगाववादी राष्ट्रवादी पार्टी आज तक अपने ही समूह के बहुसंख्यकों का वोट हासिल नहीं कर सकी है (क्यूबेक में हालांकि ऐसी स्थिति लगभग पहुंच गई थी, लेकिन वहां के राष्ट्रवादी कम से कम इतने सतर्क थे कि उन्होंने तमाम तरीकों से यह जता ही दिया कि वे पूरी तरह अलगाव नहीं चाहते थे)ा मैं यह नहीं कह रहा कि ऐसा हो नहीं सकता या ऐसा होगा नहीं- अलगाव से राष्ट्रीय आज़ादी हासिल कर पाने का अब तक वैसे सबसे सुरक्षित तरीका यही रहा है कि लोगों को तब तक वोट देने को मना करते रहा जाए जब तक कि आप दूसरे तरीकों से ऐसा हासिल नहीं कर लेते।
यहीं से पहचान की राजनीति के विरुद्ध होने के दो आनुभविक कारण नकल कर सामने आते हैं। बिना किसी बाहरी जबर या दबाव के सामान्य परिस्थितियों में यह बमुश्किल ही लक्षित समूह के भी एक छोटे से हिस्से को ही साथ ले पाती है। इसीलिए, औरतों की एक अलग से राजनीतिक पार्टी बनाने की कोशिशें अब तक बहुत प्रभावकारी नहीं हो पाई हैं। दूसरी वजह यह है कि लोगों को सिर्फ एक पहचान अपनाने के लिए बाध्य करने से लोग बंट जाते हैं। इसके चलते अल्पसंख्यक अलग-थलग पड़ जाते हैं।
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि अल्पसंख्यक दबाव समूहों की मांग- जो कि अनिवार्यत: उन समूहों की मांगें नहीं होती हैं- के आधार पर एक सामान्य आंदोलन खड़ा करना मुसीबत को बुलावा देना है। यह अमेरिका में साफ दिखता है जहां विशिष्ट अल्पसंख्यक समूहों के पक्ष में सकारात्मक भेदभाव के खिलाफ चली लहर और बहुसांस्कृतिकता की अतियों ने एक मजबूत स्थिति हासिल कर ली है। समस्या हालांकि यहां भी बनी ही रहती है।
आज वामपंथ और दक्षिणपंथ दोनों ही पहचान की राजनीति के सहारे आगे बढ़ रहे हैं। बदकिस्मती कहिए कि अल्पसंख्यकों के विशुद्ध गठजोड़ के रूप में विघटन का खतरा वामपंथ के मामले में असामान्य रूप से कहीं ज्यादा है क्योंकि प्रबोधन के महान सार्वभौमिक नारों के पतन- जो कि अनिवार्यत: वाम धारा के नारे थे- ने उसके पास विभिन्न तबकों के बीच समान हितों के सूत्रीकरण का कोई स्वाभाविक तरीका नहीं छोड़ा है। इन तमाम सीमाओं के पार सिर्फ एक तथाकथित ”नया सामाजिक आंदोलन” अगर मौजूद है तो वह पर्यावरणवादियों का है। लेकिन अफसोस, कि इसकी राजनीतिक अपील बहुत सीमित है और वैसी ही रहने वाली है।
पहचान की राजनीति का एक स्वरूप हालांकि अब भी ऐसा है जो वास्तव में समग्रतापूर्ण है, कम से कम इस मायने में कि वह एक राज्य की सरहदों के भीतर एक ‘कॉमन अपील’ पर टिका है: नागरिक राष्ट्रवाद (सिटिज़न नेशनलिज्म)। वैश्विक परिप्रेक्ष्य में देखें तो यह सार्वभौम अपील के खिलाफ दिखता है, लेकिन एक राष्ट्र-राज्य के परिप्रेक्ष्य में इसे देखा जाए- जहां हम में से अधिकतर लोग अब भी रहते हैं और शायद आगे भी रहेंगे- तो यह एक समान पहचान मुहैया कराता है, जिसे बेनेडिक्ट एण्डरसन ‘एक कल्पित समुदाय’ का नाम देते हैं। दक्षिणपंथ, खासकर सरकारों के भीतर मौजूद दक्षिणपंथी तत्वों ने हमेशा इस पर अपना एकाधिकार जताना चाहा है और अब भी वे आसानी से इसे मैनिपुलेट कर सकते हैं। ‘एक राष्ट्र’ के नारे वाले टोरीवाद की कब्र खोदने वाले थैचरवाद ने भी तो यही किया था। यहां तक कि उसकी मरणासन्न उत्तराधिकारी मेजर की सरकार भी अपने विपक्ष को देशभक्त विरोधी करार देकर चुनाव में खुद को बचाने के लिए इसी के सहारे है।
फिर आखिर वाम राजनीति के साथ, खासकर अंग्रेज़ीभाषी देशों के वाम के साथ, आखिर ऐसी क्या दिक्कत है कि वह खुद को समूचे राष्ट्र का प्रतिनिधि नहीं मान पा रहा? (ज़ाहिर है, मैं जब राष्ट्र कहता हूं तो इसका मतलब कोई जातीय इकाई नहीं बल्कि देश के सभी लोगों के एक समुदाय के रूप में है।) उन्हें इसकी कोशिश करने में भी आखिर इतनी दिक्कत क्यों आ रही है? आखिर को, यूरोपीय वाम की तो शुरुआत ही तब हुई जब एक वर्ग या वर्ग गठजोड़ ने (1789 के फ्रेंच एस्टेट्स जनरल में थर्ड एस्टेट ने) अल्पसंख्यक सत्ता समूह के खिलाफ खुद को ”राष्ट्र” कहने का फैसला लिया था और इस तरह एक राजनीतिक ”राष्ट्र” की अवधारणा को ही जन्म दे डाला। आखिर मार्क्स ने भी तो कम्युनिस्ट मैनिफेस्टो में ऐसे रूपांतरण की परिकल्पना की ही थी। और आगे आएं तो अमेरिकी वामपंथ के सबसे बढि़या पर्यवेक्षकों में एक टॉड गिटलिन ने अपनी नई पुस्तक दि ट्वाइलाइट ऑफ कॉमन ड्रीम्स में इस बात को बड़े नाटकीय ढंग से रखा है: ”अगर वह कम से कम सारे लोगों की आवाज़ नहीं है, तो फिर वाम है क्या? … यदि ”पीपॅल” है ही नहीं, सिर्फ ”पीपॅल्स” हैं, तो वाम नहीं है।”
(मार्क्सवादी इतिहासकार एरिक हॉब्सबॉम ने 2 मई 1996 को लंदन के इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशन में इसी शीर्षक से एक व्याख्यान दिया था। यह लेख उसी व्याख्यान का संपादित अंश है। अनुवाद अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है।)