मौलिक अधिकार एवं नीति निर्देशक तत्व
संविधान सभा की 75 सदस्यीय परामर्श समिति ने मौलिक अधिकारों के निर्धारण के लिए एक मौलिक अधिकारों की उप समिति बनायी जिसके अध्यक्ष सरदार बल्लभ भाई पटेल थे। 29 अप्रैल 1947 को मौलिक अधिकारों की उपसमिति ने अपनी रिपोर्ट संविधान सभा के सामने पेश किया। इस रिपोर्ट को पेश करते हुए पटेल ने स्पष्ट किया कि लोगों के अधिकार दो रूप में होंगे। पहला न्याय- वह अधिकार जिन्हें अदालत में चुनौती दी जा सकती है और दूसरा गैर न्याय- वह अधिकार जिन्हें अदालत में चुनौती नहीं दी जा सकती है।
मौलिक अधिकारों के पेश करने के बाद उस पर संविधान सभा में काफी तीखी और गंभीर बहस हुई। संविधान सभा के कई सदस्यों का मानना था कि राजनैतिक समानता, आर्थिक समानता के वगैर कभी भी मूर्त रूप धारण नहीं कर सकती तथा व्यक्ति की सच्ची आजादी आर्थिक सुरक्षा तथा स्वतंत्रता के बिना सम्भव नहीं हो सकती। अभावों से घिरे लोग कभी भी स्वतंत्र नहीं हो सकते। डा. पीएस देशमुख ने कहा कि “…..सर्वप्रथम हमारे लोगों में निर्धनता, अज्ञानता और निरक्षरता है। इसके बाद भोजन की कमी, पोषक तत्वों की कमी, सदाचार की कमी, अमानवीय लोभ तथा इसके परिणाम स्वरूप नैतिक, मानसिक, समाजिक, आध्यात्मिक और आर्थिक पतन है। प्रश्न यह है कि यह मौलिक अधिकार इस पतन से कहां तक रक्षा कर सकते हैं और हम इसको कहां तक ऐसा आधार मान सकते हैं कि जिस पर हम चल सकें और इन कठनाइयों को दूर कर सकें, जिससे की निर्धनता न रह सके, अज्ञानता तथा भुखमरी का लोप हो जाय, कुछ लोगों के हाथों में धन का केन्द्रीयकरण न हो। इनमें से किसी बात पर विचार नहीं किया गया है। मैं एक शब्द में कहूंगा इन पर धोखे के रूप में विचार किया गया है।” प्रमथ रंजन ठाकुर ने आर्थिक अधिकारों (रोजगार, समान वेतन, जीवन स्तर में बेहतरी लाने आदि) को नीति निदेशक तत्वों में शामिल किये जाने पर कहा कि “आर्थिक अधिकारों को भी मौलिक अधिकारों में शामिल किया जाना चाहिए ताकि उन्हें न्याय का अधिकार माना जा सके।”
संविधान सभा में सबसे ज्यादा बहस इस बात पर हुई कि कौन से अधिकार मौलिक अधिकार की श्रेणी में आयेगें और कौन से अधिकार नीति निदेशक तत्वों (जिनका प्रावधान है लेकिन राज्य बाध्य नहीं है) में शामिल होगे। दूसरा सवाल यह था कि एक तरफ तो मौलिक अधिकार दिये जाने की बात कही जा रही है किन्तु उस पर प्रतिबंध भी लगाये जा रहे हैं। इससे तो राज्य की बाध्यता सीमित या समाप्त हो जाती है। संविधान सभा में अनुच्छेद 13 जिसमें मौलिक अधिकारों की व्याख्या की गयी है उस पर भी गम्भीर बहस हुई सदस्यों ने कहा कि इन अधिकारों पर इतने अधिक प्रतिबंध रख दिये गये हैं कि इनके कारण मौलिक अधिकारों का कोई मूल्य नहीं रह जाता। कृष्णचंद शर्मा का सुझाव था कि “नीति निर्देशक सिधान्तों के संदर्भ में मेरा सुझाव है कि हम एक ऐसा प्रावधान बनायें कि यदि शासन द्वारा ऐसा कानून बनाया जाय जो इन सिद्धांतों के प्रतिकूल हो तो वह रद्द समझा जाय इससे वर्तमान स्थिति में कोई अंतर नहीं होगा। इससे तो केवल क्षेत्राधिकार प्राप्त हो जायेगा। जिसके द्वारा लोग न्यायालय से यह प्रार्थना कर सकेगें कि वह जो कोई कानून लोकहित के प्रतिकूल है जो लोगों को काम और सेवावृत्ति देने में बाधक है उसे वह आमान्य घोषित कर दे। मतलब यदि किसी व्यक्ति को यह महसूस हो कि सरकार द्वारा बनायीं गयी कोई नीति या कानून नीति निर्देशक तत्वों का उल्घंन करता है तो न्यायालय द्वारा उसे रोका जा सकेगा।”
संविधान सभा के सदस्य बी दास ने 30 अगस्त 1947 को कहा कि “मैं समझता हूं सरकार का भुखमरी हटाने, प्रत्येक नागरिक को सामाजिक न्याय प्रदान करने तथा सामाजिक संरक्षण देने का प्रमुख कर्तव्य है। …..परन्तु करोड़ों देशवासियों को ऐसी कोई आशा नहीं होती कि दो माह बाद जो संविधान स्वीकार होगा वह उनको भुखमरी से मुक्त करेगा, उन्हें सामाजिक न्याय प्रदान करेगा, उनको जीवन यापन के निन्मतम परिणाम तथा स्वस्थ्य के निम्नतम परिणाम तक ले जायेगा। ……मुझे ऐसी कोई बात नहीं मिली जिसनें सरकार या राज्य को बाध्य किया हो कि वह सर्व साधारण की भलाई तथा जनता के हित के लिए अपने पालनीय कर्तव्यों का पालन करे। स्वतंत्रता के साथ भारतीय राज्य व्यवस्था पर जिम्मेदारी आयी थी कि वे भारत के नागरिकों विशेष तौर पर समाज के वंचित तबकों के मूलभूत अधिकारों की रक्षा करेंगे।’’
देश के नागरिक की आर्थिक सुरक्षा और स्वतंत्रता तथा संसाधनों के सामान बंटवारे को मौलिक अधिकारों में शामिल करने की आवश्यकता पर बल देते हुए विश्म्वबर दयाल त्रिपाठी ने कहा कि “प्रस्तावित विधान के मुताबिक 10 वर्ष के अन्दर हमारी स्वतंत्र सरकार गांव-गांव में प्रत्येक गरीब के लिए प्राथमिक शिक्षा पूर्ण रूप से सुनिश्चित कर देगी। कोई ऐसा बच्चा हमारे देश में नहीं होगा जिसको शिक्षा पाने का सुयोग प्राप्त न हो सकेगा। मैं इसका स्वागत विशेष रूप से करता हूं। मैं एक बात कहना चाहता हूं कि हमनें सब चीज तो शासन विधान में बनाई। बहुत से राष्ट्रीय, अन्तराष्ट्रीय प्रश्नों का हल करने का प्रयास किया, लेकिन हमनें गरीब आदमी के लिए एक शब्द भी न लिखा। सिवाय सदिच्छा के और कोई शब्द हमारे शासन विधान में नहीं मिलता। सिवाय एक बात को छोड़कर उसको वोट देने का अधिकार अवश्य दे दिया गया है। इसके आलवा एक गरीब के लिए कोई बात हमारे शासन विधान में अभी तक नहीं आयी है। मैं बहुत नम्रता के साथ कहूंगा कि आप इसमें कुछ नियम लाइए जिसमें यह स्पष्ट हो सके कि हमारा जो शासन विधान तैयार होगा और उस पर जब अमल होगा, तो उसमें यह नहीं होगा कि थोड़े से पूंजीपतियों और कुछ थोड़े लोगों का साम्राज्य हो और उनका शासन हो, गरीब आदमी और साधारण जन समूह उसकी दया पर आश्रित रहे। आप ऐसे नियम लायें जिसमें हमारे शासन पर निजी हित के लिए पूंजीपतियों का ऐसे लोगों का जो गरीब आदमियों को हमेशा दबाए रखना चाहते हैं, उन लोगों का प्रभुत्व कायम न हो सके।” संविधान सभा के सदस्य इस बात से वाकिफ थे और बार-बार यह उल्लेख और तर्क कर रहे थे कि आर्थिक न्याय के बिना भारत एक बेहतर मुल्क नहीं बन पायेगा और उपनिवेशवाद से मुक्त नहीं हो पायेगा।
डा. आंबेडकर ने आलोचनाओं का जबाब देते हुए कहा कि आलोचकों की राय में मौलिक अधिकार तब तक मौलिक अधिकार नहीं है जब तक कि वे सर्वथा सम्पूर्ण प्रतिबन्ध शुन्य न हो। ……यह कहना गलत है कि मौलिक अधिकार हमेशा सम्पूर्ण प्रतिबन्ध शुन्य होते है और अन्य अधिकार अबाध नहीं होते है। ……चूँकि मौलिक अधिकार राज्य की देन है इसलिए राज्य उसके सम्बन्ध में प्रतिबन्ध नहीं रख सकता ऐसा अर्थ लगाना भूल है।
केंद्र को शक्ति संपन्न बनाने वाले प्रावधानों पर भी महत्वपूर्ण बहस हुई। संविधान सभा के कुछ सदस्यों का मानना था कि औद्योगिक उन्नति और आर्थिक दशाओं के कारण केंद्र सशक्त होगा और उत्तरोत्तर सशक्त होता जायेगा। इसलिए संवैधानिक रूप से शुरू से ही केंद्र को सर्वशंक्ति सम्पन्न बनाना न केवल अनावश्यक है बल्कि संकटापन्न भी है। आवश्यकता से अधिक शक्तिशाली केंद्र निर्दयी हो जाता है और नागरिकों की स्वतंत्रता और उनके विशेषाधिकार का हनन करने लगता है। इन सदस्यों का यह भी मानना था कि सत्ता का केन्द्रीयकरण सत्ता को निरंकुश बना देता है। एक समय ऐसा आता है जब बहुमत निरंकुश सत्ता का सबसे धारदार हथियार बन जाता है। यदि समाज को साम्प्रदायिकता और पूंजीवाद के दाम्पत्य के बारे में शिक्षित नहीं किया जाय तो सत्ता, सरकार इसका उपयोग करके आजाद मुल्क के नागरिकों को गुलाम बना कर रखती है।
केंद्र को शक्ति संपन्न बनाने के विषय में के. संतानम का कहना था कि “मैं नहीं चाहता कि हर चीज के लिए केन्द्रीय सरकार ही उत्तरदायी बनायी जाय। …..मैं ऐसा कोई विधान नहीं चाहता, जिससे प्रांतीय संघ को केंद्र के पास जा कर कहना पड़े कि मैं अपने लोगों की शिक्षा व्यवस्था नहीं कर सकता, मैं उनके लिए सफाई की व्यवस्था नहीं कर सकता, सड़कें सुधारने के लिए, उद्योग धंधे के लिए आरंभिक शिक्षा के लिए हमें दान दीजिये।’’ केंद्र को अधिक शक्ति संपन्न बनाने का विरोध करते हुए रामनारायण सिंह ने कहा कि “जहां तक में रा ख्याल है वह यह है कि किसी सरकार को जितने कम अधिकार दिये जाय उतना ही अच्छा होता है। साहब, सारी जिन्दगी सरकार से लड़ने में ही बीती। एक सरकार ख़त्म किया और दूसरी सरकार हम कायम कर रहे हैं और अभी तक जो सरकारें रही उसके प्रति दिल में अच्छा भाव पैदा हो नहीं रहा है। …….सरकार को कितना अधिकार हो इसकी चिंता सबको होनी चाहिए, लेकिन इसके साथ-साथ यह भी चिंता होनी चाहिए कि सरकार पर जनता का कितना अधिकार रहे। हमें सबसे अधिक इसी विषय पर सोचना है।” बी दास ने कहा कि “यह विधान संघात्मक राज्य की अपेक्षा एक शक्तिशाली एकात्मक राज्य की अधिक जड़ जमा रहा है। मेरा आशय यही है कि संघों को अधिकार देने की अपेक्षा केंद्र को कपट से बहुत अधिकार दे दिये गए हैं। शक्ति के इस केन्द्रीयकरण से न मालूम भविष्य क्या होगा? परन्तु अपने वर्तमान अनुभव के आधार पर मैं यह कहूंगा कि हमारी वर्तमान सरकार का इतना केन्द्रीयकरण हो गया है और हमारे अधिकारी वर्ग अधिकारों के इतने भूखे हैं कि यदि देश सजग न रहे और जनता अधिक जागरूक न हो तो यह पूरी आशंका है कि न्याय, व्यवस्था, शान्ति और एकता के नाम पर वे आसानी से पथ भ्रष्ट हो सकते है। ……प्रश्न यह है कि हम एक शक्तिशाली केंद्र चाहते है? किसके विरुद्ध? पाकिस्तान के विरुद्ध, रूस के विरुद्ध या स्वंय भारतवासियों के विरुद्ध।’’
संविधान सभा में मौलिक अधिकारों को लेकर हुई तमाम चर्चा और बहस के बाद उसे संवैधानिक रूप से मान्यता दी गयी। संविधान निर्माण में अपनाई गयी प्रक्रिया उसके लिए संविधान सभा में की गयी चर्चा, बहस और आलोचनाओं के बीच 26 नवम्बर 1949 को संविधान सभा में डा. आंबेडकर ने कहा कि “आज इस संविधान की अच्छाईयां गिनाने का कोई खास मतलब नहीं है। संविधान कितना ही अच्छा हो अगर इसका इस्तेमाल करने वाले लोग बुरे होगें तो यह बुरा साबित होगा। अगर संविधान बुरा है, पर उसको इस्तेमाल करने वाले अच्छे होगें तो संविधान अच्छा संविधान साबित होगा। जनता और राजनैतिक दलों की भूमिका को संदर्भ में लाये बिना संविधान पर टिप्पणी करना व्यर्थ होगा।”
मौलिक अधिकार उप समिति द्वारा पेश की गयी मौलिक अधिकार की रिपोर्ट पर संविधान सभा में की गयी बहस के बाद मौलिक अधिकार की व्यवस्थित सूची को संविधान सभा ने स्वीकार किया। मौलिक अधिकार का मायने किसी भी व्यक्ति को गरिमामय जीवन जीने के लिए जरुरी संरक्षण और अधिकार मिलना है। लोगों के मौलिक अधिकार को सुनिश्चित करना राज्य की जिम्मेदारी है। राज्य नागरिकों को उसके मौलिक अधिकार उपलब्ध कराने के लिए बाध्य है। अगर राज्य इस दायित्व निर्वहन से पीछे हटता है या किसी व्यक्ति या समुदाय के मौलिक अधिकारों का हनन होता है तो वह न्यायालय की शरण में जा सकता है। न्यायालय राज्य को आदेश कर सकता है कि राज्य अनिवार्य रूप से व्यक्ति या समुदाय के मौलिक अधिकारों का संरक्षण करे।
मूल संविधान में सात मौलिक अधिकार थे, लेकिन 1978 में 44वें संविधान संशोधन के द्वारा सम्पति के अधिकार (जो अनुच्छेद 31 में शामिल था) को मौलिक अधिकार की सूची से हटा कर अनुच्छेद 300 (a) के अंतर्गत क़ानूनी अधिकार के रूप में रखा गया है। संविधान के भाग 3 अनुच्छेद 12-35 तक में मौलिक अधिकारों का विवरण है। वर्तमान में 6 मौलिक अधिकार है जो निम्नलखित है :-
- समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18 तक)
- स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22 तक)
- शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24 तक)
- धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28 तक)
- संस्कृति और शिक्षा संबंधी अधिकार (अनुच्छेद 29-30 तक)
- संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)
समानता का अधिकार (अनुच्छेद 14-18)
अनुच्छेद 14 – कानून के समक्ष समानता– राज्य सभी व्यक्तियों के लिए एक समान कानून बनाएगा तथा उन पर एक समान रूप से लागू करेगा।
अनुच्छेद 15 – सामाजिक समानता– राज्य के द्वारा धर्म, मूलवंश एवं जन्म स्थान आदि के आधार पर नागरिकों के प्रति जीवन के किसी भी क्षेत्र में भेदभाव नहीं किया जायेगा।
अनुच्छेद 16 – अवसर की समानता– राज्य के आधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से संबंधित विषयों में सभी नागरिकों के लिए समान अवसर की समानता होगी। अपवाद-अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग।
अनुच्छेद 17 – अस्पृश्यता (छुआछूत) का अंत– अस्पृश्यता के उन्मूलन के लिए इसे दंडनीय अपराध घोषित किया गया है।
अनुच्छेद 18 – उपाधियों का अंत– राज्य सेना तथा विद्या संबंधी उपाधियों के अलावा अन्य कोई उपाधियाँ प्रदान नहीं कर सकता। भारत का कोई भी नागरिक किसी अन्य देश से बिना राष्ट्रपति की आज्ञा से कोई उपाधि स्वीकार नहीं कर सकता है।
स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 19-22)
अनुच्छेद 19 – मूल संविधान में 7 तरह की स्वतंत्रता नागरिकों को दी गई थी बाद में 44वें संविधान संशोधन में सम्पत्ति का अधिकार मौलिक अधिकार की सूची से हटा दिया गया। अब सिर्फ 6 स्वतंत्रताएं है-
19 (a) विचार एवं अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता।
19 (b) शांतिपूर्वक बिना हथियारों के एकत्रित होने और सभा करने की स्वतंत्रता।
19 (c) संघ बनाने की स्वतंत्रता।
19 (d) देश के किसी भी क्षेत्र में निवास करने और बसने की स्वतंत्रता।
19 (e) देश के किसी क्षेत्र में आवागमन की स्वतंत्रता।
19 (f) कोई व्यापार एवं जीविका चलाने की स्वतंत्रता।
अनुच्छेद 20 – अपराधों के लिए के लिए दोष सिद्धि के सम्बन्ध में संरक्षण- इसके अंतर्गत तीन तरह की स्वतंत्रता प्राप्त है-
20 (a) किसी भी व्यक्ति को एक अपराध के लिए सिर्फ एक बार सजा मिलेगी।
20 (b) अपराध करने के समय जो कानून है उसी के तहत सजा मिलेगी न कि पहले और बाद में बनने वाले कानून के तहत।
20 (c) किसी भी व्यक्ति को स्वंय के विरुद्ध न्यायालय में गवाही देने के लिए बाध्य नहीं किया जायेगा।
अनुच्छेद 21 – प्राण एवं दैहिक स्वतंत्रता का संरक्षण- किसी भी व्यक्ति को विधि द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अतिरिक्त उसके जीवन और वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता।
अनुच्छेद 21 (क) – राज्य 6 से 14 वर्ष के आयु के समस्त बच्चों को राज्य नि:शुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराएगा।
अनुच्छेद 22 – अगर किसी व्यक्ति को मनमाने ढंग से हिरासत में ले लिया गया है तो उसे तीन प्रकार की स्वतंत्रता प्रदान की गयी है-
- हिरासत में लेने के कारण बताना होगा।
- 24 घंटे के अन्दर उसे दण्डाधिकारी के समक्ष पेश किया जायेगा।
- उसे अपने पसंद के वकील से सलाह लेने का अधिकार होगा।
शोषण के विरुद्ध अधिकार (अनुच्छेद 23-24)
अनुच्छेद 23 – मनुष्य के क्रय-विक्रय और बेगार पर रोक– इसके अंतर्गत मनुष्य के क्रय विक्रय, बालश्रम, बेगार या जबरदस्ती लिये जाने वाले श्रम पर रोक लगा दी गयी है। इसका उलंघन दण्डनीय अपराध है।
अनुच्छेद 24 – बाल श्रम पर रोक– 14 वर्ष से कम आयु के किसी बच्चे को कारखानों, खानों या अन्य किसी जोखिम भरे काम के लिए नियुक्त नहीं किया जा सकता है।
धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार (अनुच्छेद 25-28)
अनुच्छेद 25 – धर्म को अबाध रूप से मानने, आचरण और प्रचार करने की स्वतंत्रता– कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म को मान सकता है और उसका प्रचार-प्रसार कर सकता है।
अनुच्छेद 26 – धार्मिक कार्य के प्रबन्ध की स्वतंत्रता– व्यक्ति को अपने धर्म के लिए संस्थाओं की स्थापना व पोषण करने, विधि सम्मत सम्पत्ति अर्जन करने, स्वामित्व और प्रशासन का अधिकार।
अनुच्छेद 27 – धार्मिक कार्यों हेतु व्यय की जाने वाली राशि कर मुक्त- राज्य किसी भी व्यक्ति को ऐसा कर देने के लिए बाध्य नहीं कर सकता जिसकी आय किसी धर्म विशेष अथवा धार्मिक संप्रदाय की उन्नति या पोषण में व्यय करने के लिए विशेष रूप से निश्चित कर दी गयी हो।
अनुच्छेद 28 – राज्य विधि से पूर्णत: पोषित किसी शिक्षा संस्थान में धार्मिक शिक्षा पर रोक– ऐसे शिक्षण संस्थान अपने विद्यार्थियों को अपने संस्थान में धार्मिक कार्यों में भाग लेने या किसी धर्मोपदेश को बलात सुनने हेतु बाध्य नहीं कर सकते।
संस्कृति एवं शिक्षा संबंधित अधिकार (अनुच्छेद 29-30)
अनुच्छेद 29 – अल्पसंख्यक हितो का सरंक्षण– कोई भी अल्पसंख्यक वर्ग अपनी भाषा, लिपि और संस्कृति को सुरक्षित रख सकता है और केवल भाषा, जाति, धर्म और संस्कृति के आधार पर उसे किसी भी सरकारी शैक्षणिक संस्थान में प्रवेश से नहीं रोका जायेगा।
अनुच्छेद 30 – शिक्षा संस्थाओं की स्थापना और प्रशासन करने का अल्पसंख्यक वर्गो का अधिकार– कोई भी अल्पसंख्यक वर्ग अपनी पसंद की शैक्षणिक संस्था चला सकता है और सरकार उसे अनुदान देने से किसी तरह का भेदभाव नहीं करेगी।
संवैधानिक उपचारों का अधिकार (अनुच्छेद 32)– संवैधानिक उपचारों का अधिकार को डा. अम्बेडकर ने संविधान की आत्मा कहा, क्योंकि यह दूसरे मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है। इसके तहत मौलिक अधिकार को परवर्तित (कानून द्वारा लागू) करने के लिए समुचित कार्यवाहियों द्वारा सर्वोच न्यायालय या उच्च न्यायालयों में आवेदन करने का अधिकार प्रदान किया गया है। इस संदर्भ में सर्वोच्च न्यायालय को पांच तरह की रिट (आदेश या निर्देश) निकालने की शक्ति प्रदान की गयी है-
- बन्दी प्रत्यक्षीकरण– यह उस व्यक्ति की प्रार्थना पर जारी किया जाता है जो यह समझाता है कि उसे अवैध रूप से बन्दी बनाया गया है। इसके द्वारा न्यायालय बंदीकरण अधिकारी को आदेश देता है कि वह बन्दी बनाए गए व्यक्ति को निश्चित स्थान और निश्चित समय के अन्दर उपस्थित करे जिससे न्यायालय बन्दी बनाये जाने के कारणों पर विचार कर सके।
- परमादेश – परमादेश उस समय जारी किये जाते हैं जब कोई पदाधिकारी अपने सार्वजानिक कर्तव्यों का पालन नहीं करता।
- प्रतिषेध (मना करना)- यह आज्ञा पत्र सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालय द्वारा निन्म न्यायालय को जारी करते हुए आदेश दिया जाता है कि इस मामले में अपने यहाँ कार्यवाही न करे क्योंकि यह मामला उनके अधिकार क्षेत्र से बाहर है।
- उत्प्रेषण– इसके अंतर्गत न्यायलयों को यह निर्देश दिया जाता है कि वे अपने पास लम्बित मुकदमों के न्याय के लिए वरिष्ठ न्यायालय को भेजें।
- अधिकार पृच्छ– जब कोई व्यक्ति ऐसे पदाधिकारी के रूप में कार्य करने लगता है जिसके रूप में कार्य करने का उसे वैधानिक अधिकार नहीं है। न्यायालय आदेश जारी करता है कि वह किस अधिकार से कार्य कर रहा है। जब तक वह संतोष जनक उत्तर नहीं देता तब तक वह कार्य नहीं कर सकता।
नीति निर्देशिक तत्व
संविधान के भाग 3 में दिये गए मौलिक अधिकार के साथ ही भाग 4 में नीति निर्देशिका है जिसमें देश के नागरिकों को ऐसे अधिकार मिले हैं जिसे न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती। नीति निर्देशिका राज्य के लिए निर्देश है कि राज्य ऐसे कार्य करे जो देश के नागरिकों के हित में हो। यह शुद्ध रूप से राजनैतिक और सरकार की नीतियों से संबंधित है। सरकार जो भी नीतियां बनाएगी उससे लोगों को आजीविका के पर्याप्त साधन मुहैया हो, कामगारों को जीवन निर्वाह योग्य मजदूरी की व्यवस्था हो सके, जिससे वह सम्मान पूर्वक अपना जीवन निर्वाह कर सके, कुछ लोगों के हाथों में धन का केन्द्रीयकरण न हो सके, स्वास्थ्य में सुधार हो सके, बेरोजगारी, वृद्धावस्था, बीमारी, विकलांगता में सार्वजनिक साहयता सुनिश्चित हो सके। कार्यपालिका उन नीतियों के अनुरूप नागरिकों के कल्याण के लिए अपनी कार्यवाही करेगी।
संविधान के भाग 4 में अनुच्छेद 36 से 51 तक राज्य के लिए नीति निर्देशक तत्व शामिल है। जिसका उद्देश्य नागरिकों में आर्थिक और सामाजिक असमानता को दूर करना और ऐसे समाज के स्थापना करना जिसमें संवैधानिक मूल्यों- स्वतंत्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व को बढ़ावा मिले जिससे राज्य के नागरिक भयमुक्त गरिमापूर्ण जीवन व्यतीत कर सके। डा. अम्बेडकर ने कहा कि “यह भाग 4 आधुनिक लोकतान्त्रिक राज्य के लिए व्यापक आर्थिक, राजनैतिक तथा समाजिक कार्य की रचना करता है, इसके आभाव में सच्चे लोकतंत्र की स्थापना नहीं की सकती है। नीति निर्देशिका में पांच तत्व शामिल है जो निन्म है-
- आर्थिक नीति से संबंधित।
- समाजिक तथा शिक्षा से संबंधित।
- शासन से संबंधित।
- स्मारक तथा एतिहासिक महत्व से संबंधित।
- अन्तराष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा से संबंधित।
1. आर्थिक निति से संबंधित- संविधान के अनुच्छेद 39, 41, 42, 43, 46, 47, 48 में आर्थिक नीति संबंधित व्याख्या की गयी है। इसमें राज्य के लिए निर्देश दिया गया है कि राज्य ऐसी आर्थिक नीति की व्यवस्था करेगा जिससे देश के सभी नागरिकों की आर्थिक जरूरते पूरी हो सके और उनका किसी भी प्रकार से आर्थिक शोषण न हो सके।
अनुच्छेद 39 (a) स्त्री-पुरुष दोनों को एक समान कार्य के लिए समान वेतन की व्यवस्था।
(b) देश के सभी नागरिकों (स्त्री और पुरुष) को आजीविका के पर्याप्त साधन उपलब्ध कराना। भुखमरी समाप्त करने का प्रयास करना।
(c) सभी को न्याय उपलब्ध कराने की व्यवस्था करना।
(d) संसाधनों का समान रूप से बंटवारा करना जिससे आर्थिक असमानता को दूर किया जा सके।
(e) बच्चों को स्वतंत्रता तथा सम्मान से जीने का अवसर तथा सुविधा उपलब्ध करना।
अनुच्छेद 41 – नागरिकों को उनकी योग्यता के अनुसार कार्य करने का अवसर उपलब्ध करना।
अनुच्छेद 42 – महिलाओं को प्रसूति के समय सुविधा प्रदान करना।
अनुच्छेद 43 – कामगारों (श्रमिकों) को कार्य करने की व्यवस्था करना तथा जीवन यापन के लिए उचित मजदूरी, अवकाश की व्यवस्था उपलब्ध करना जिससे सामाजिक और सांस्कृतिक विकास के अवसर मिल सके और अपना जीवन स्तर ऊंचा कर सकें।
अनुच्छेद 46 – अनुसूचित जातियों, अनुसूचित जन जातियों तथा कमजोर वर्गों की शिक्षा तथा आर्थिक हितों की सुरक्षा करना।
अनुच्छेद 47 – देश के सभी नागरिकों को स्वास्थ्य सुविधा उपलब्ध कराना।
अनुच्छेद 48 – जंगल तथा जंगलों में रहने वाले वन्य जीव की रक्षा तथा उनके रख रखाव की व्यवस्था करना। कृषि और पशु पालन की उन्नति के लिए समुचित अवसर उपलब्ध कराना।
2. समाजिक तथा शिक्षा संबंधी – इसमें समाज के कमजोर और वंचित समुदाय को सुरक्षा प्रदान करना तथा उनके बौद्धिक और नैतिक विकास के लिए अवसर उपलब्ध कराने का प्रावधान किया गया है।
- राज्य के कमजोर और वंचित समुदाय खास कर अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति की शिक्षा एवं आर्थिक उन्नति का प्रयास करना।
- राज्य के नागरिकों का जीवन स्तर ऊंचा उठाना, पौष्टिक आहार की व्यवस्था करना तथा मादक पदार्थो के सेवन पर रोक।
- 6-14 वर्ष तक के बच्चों के लिए नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था करना।
3. शासन संबंधी – इसके अंतर्गत प्रशासन में सुधार लाना
- राज्य ग्राम पंचायतों का संगठन करेगा तथा ऐसी शक्तियां प्रदान करेगा जिससे उनका विकास हो सके।
- राज्य सभी नागरिकों के लिए समान कानून व्यवस्था करेगा। जिसमें बिना धर्म को आधार बनाए समान कानून की व्यवस्था हो।
- कार्यपालिका से न्यायपालिका को अलग कर निष्पक्ष न्याय की व्यवस्था करना।
4. स्मारक तथा ऐतिहासिक महत्व से संबंधित –
अनुच्छेद 49- राज्य प्राचीन स्मारकों तथा ऐतिहासिक महत्व की वस्तुओं की रक्षा करेगा तथा उसे नष्ट होने या बाहर भेजने से रोकेगा।
5. अन्तराष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा संबधी-
अनुच्छेद 51 (i) राज्य अंतर्राष्ट्रीय शान्ति तथा सुरक्षा का विकास करेगा। (ii) विभिन्न राष्ट्रों के बीच न्यायपूर्ण तथा सम्मान पूर्ण सम्बन्ध बनाए रखेगा। (iii) अंतर्राष्ट्रीय कानून तथा समझौतों के प्रति आदर भाव बढ़ाने का प्रयास करेगा। (iv) अंतर्राष्ट्रीय विवादों को मध्यस्थता द्वारा हल करना।
संविधान में देश के नागरिकों को दिये गये मौलिक अधिकारों एवं नीति निर्देशक तत्वों में आर्थिक, राजनैतिक और सामाजिक न्याय तथा बंधुत्व इसका केंद्र है। सभी मौलिक अधिकार संवैधानिक मूल्यों- स्वतंत्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व को हासिल करने का साधन है। देश के सभी नागरिकों को कहीं भी आने जाने, अपनी बात कहने, अपने धर्म को मानने, आजीविका कमाने, मानवीय गरिमा के साथ जीने, अवसरों का समान रूप से बटवारा के द्वारा ही एक ऐसे राष्ट्र का निर्माण किया जा सकता है जो गरीबी, भुखमरी, जातिवाद, धार्मिक द्वेष, अशिक्षा, बेकारी से मुक्त होगा। मौलिक अधिकारों को देने के पीछे संविधान सभा की यही मंशा और भावना थी। इसके लिए राज्य को बाध्य किया गया कि वह इसकी रक्षा करेगा। राज्य अगर नागरिक के मौलिक अधिकारों का हनन कर रहा है तो नागरिक को न्यायालय में जाने का अधिकार भी दिया गया है। जहां न्यायालय राज्य को आदेश/निर्देश दे सकता है।
संविधान में राज्य संचालन के लिए प्रतिनिधियों के चुनाव करने का अधिकार भी देश के नागरिकों को दिया गया है जो जनता के बीच से होगें, जनता के द्वारा चुने होगे और जनता के लिए कार्य करेंगे। इसका मायने ऐसी सरकार या प्रतिनिधि जो जनता की भावनाओं तथा जरूरतों को जानते, समझते और महसूस करते हों। जनता बिना किसी दबाब, भय या लालच में आये अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करेगी। जनता द्वारा चुनी गयी सरकार (प्रतिनिधि) समाज में ऐसा माहौल तैयार करेगी जो देश की जनता के सर्वागीण विकास में सहायक हो। लोगों में एक दूसरे के प्रति स्नेह, करुणा और विश्वास को बढ़ावा दे। लोगों को अपने विचार व्यक्त करने, ऐसी आर्थिक नीतियों को बनाना जिससे संसाधनों का समान रूप से बंटवारा हो, लोगों को आजीविका के साधन उपलब्ध हो और देश में गरीबी, भुखमरी का खात्मा हो। नागरिक के स्वास्थ्य, शिक्षा और सुरक्षा की बेहतर व्यवस्था हो। सरकार ऐसे माहौल और वातावरण को तैयार करे जिसमें धर्म, भाषा और संस्कृति को लेकर जनता के बीच संघर्ष या हिंसा न हो। संविधान में देश के नागरिक और सरकार के बीच इस तरह के अंत: सम्बन्ध और आपसी भूमिका की भावना लोकतंत्र की आत्मा है।
राजतंत्र में जनता के उपर किये जा रहे उत्पीड़न और शोषण के विरुद्ध जो आंदोलन हुए उसमें स्वतंत्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व का नारा ही प्रमुख था। यही नारा लोकतंत्र के निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका अदा किया और राजतंत्र के शोषण से पूरी दुनिया को मुक्त करने में मदद किया।
सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार से संबंधित मामलों में सभी नागरिकों को समान अवसर की गारंटी है। यह अधिकार उन रोजगारों कार्यालयों पर लागू होता है जो राज्य के आधीन होते है। आर्थिक रूप से पिछड़े अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, और पिछड़ा वर्ग के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गयी है। नागरिकों को यह अधिकार समानता का अधिकार प्रदान करता है। संविधान द्वारा नागरिकों को दिये गए इस अधिकार के पीछे यह मंशा और भावना है कि राज्य इस तरह की आर्थिक नीतियाँ बनाएगा जिससे सार्वजानिक उद्योगों का विकास हो और देश के नागरिकों को उसकी योग्यता के अनुसार रोजगार के अवसर उपलब्ध हो सके जिससे कि वह अपना जीवन निर्वाह गरिमापूर्ण तरीके से कर सकें। संविधान में देश के नागरिकों के लिए आर्थिक समानता का जो प्रावधान किया गया है उसको हासिल करने का जो मूल्य अन्तरनिहित है उस मूल्य के वगैर राज्य (सरकार, प्रशासन और न्याय पालिका) नागरिकों को आर्थिक समनाता का अधिकार मुहैया नहीं करा सकती है। यह मूल्य ही वह प्रेरणा स्रोत है जो देशवासियों को सम्मान से जीने का अवसर उपलब्ध करा सकता है। जो संविधान की मूल भावना है।