संवैधानिक मूल्य केंद्रित प्रशिक्षण दिशा – निर्देशिका
अपने संविधान को अंगीकार किए हुए हमें 75 वर्ष पूरे होने जा रहे हैं। 26 नवंबर 1949 को संविधान लागू हुआ था। इस दिन को पहले जहां कानून दिवस के रूप में मनाया जाता था वहीं 2015 से उसे संविधान दिवस के रूप में याद किया जाने लगा है। इस दिन का मुख्य उद्देश्य लोगों को संविधान, मौलिक अधिकारों, कर्त्तव्यों व संवैधानिक मूल्यों के प्रति जागरूक करना है।
संविधान निर्माण एकाएक हो जाने वाली घटना नहीं थी। यह एक लम्बी प्रक्रिया का परिणाम था। संविधान को शताब्दियों तक औपनिवेशिक सरकार के विभिन्न अधिनियमों, चार्टरों, कमीशनों, समकालीन वैश्विक घटनाओं और दुनिया के अनेक संविधानों के सार ने प्रभावित किया है।
जब यह तय हो गया कि अंग्रेज भारत छोड़ेंगे तब भारत का संविधान बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई। भारत की संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को हुई और 26 नवंबर 1949 को संविधान बनकर पूरा हुआ। नागरिकता, निर्वाचन और अंतरिम संसद से संबंधित उपबंधों को तथा अस्थाई और संक्रमणकारी उपबंधों को तुरंत 26 नवंबर 1949 को ही लागू कर दिया गया। शेष संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ।
संविधान लागू होने के सात दशक बाद के राष्ट्रीय अनुभव बताते हैं कि एक संवैधानिक गणराज्य के तौर पर हम- यानी संविधान को आत्मार्पित करने वाले नागरिक- अधिकारों की प्राप्ति की दिशा में बहुत आगे बढ़ चुके हैं लेकिन संविधान की प्रस्तावना में वर्णित मूल्यों के मामले में हम लगातार पिछड़ते जा रहे हैं। अधिकार और मूल्य के बीच की दूरी जितनी आज दिख रही है, वह अभूतपूर्व है। इसे केवल एक उदाहरण से समझा जा सकता है। अधिकारों के संदर्भ में एक संवैधानिक समाज के तौर पर हम इतने आगे जा चुके हैं कि यह देश आज समलिंगी विवाह पर चर्चा कर रहा है और सर्वोच्च अदालत तक यह मामला पहुंच चुका है, लेकिन लैंगिक समानता के बुनियादी मूल्य की खस्ताहाली को अखबारों की सुर्खियों में महिला विरोधी हिंसा की खबरों में देखा जा सकता है।
चूंकि संविधान में दिए गए नागरिक अधिकार संवैधानिक मूल्यों को अपने भीतर उतारने और उन्हें सामाजिक रूप से साकार करने के महज औजार हैं, तो कह सकते हैं कि हमने औजार तो बहुत बना लिए लेकिन उनसे कोई मूर्ति नहीं गढ़ी, कोई आविष्कार नहीं किया, कोई तरक्की नहीं की। मूल्यों के अभाव में औजार रचनात्मक उद्यम की जगह विनाशकारी कवायदों में लग जाएं तो इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। आज भारत में अधिकारों का कुल सिला यही है।
यही वह पृष्ठभूमि है जो हमें मूल्यों की ओर देखने और उन्हें अपने भीतर उतारने को प्रेरित करती है। मूल्य आधारित समाज का सपना सबसे पुराना सपना रहा है। दुनिया भर के धर्मों ने बराबरी, भाईचारा और इंसाफ की बात कही है। सभी तरह के समाज सुधार आंदोलनों का भी यही नारा रहा है। आधुनिक राष्ट्र-राज्यों के बनने के पीछे योरोपीय पुनर्जागरण के विचार का यही मूल रहा है। भारत के भक्ति और सूफी आंदोलन से लेकर बंगाल के नवजागरण और बाद में आए रेडिकल राजनीतिक विचारों के केंद्र में भी वही मूल्य रहे हैं, जो संविधान के पहले पन्ने पर दर्ज हैं।
फिर सवाल उठता है कि पांच हजार साल के मूल्य-संघर्ष के बावजूद मूल्यों के प्रशिक्षण की जरूरत आज क्यों महसूस की जा रही है? इस सवाल का जवाब हम अपने रोजमर्रा के अनुभवों और अनुभूतियों में खोज सकते हैं। इसीलिए यह प्रशिक्षण पुस्तिका अनुभव-केंद्रित है। मूल्य रोपे नहीं जाते। ज्यादा से ज्यादा मनुष्य के हृदय की मिट्टी की निराई-गुड़ाई करके, उसे काम भर सींचा जा सकता है। बीज भीतर हमेशा से मौजूद होता है। बस उसके पनपने की स्थितियां पैदा करनी होती हैं। यह प्रशिक्षण दिशा-निर्देशिका उन्हीं उर्वर परिस्थितियों को पैदा करने का एक खाका है। जाहिर है, इस पुस्तिका में दिए गए चरण और उनके भीतर के अभ्यास आजमाये हुए हैं। दो वर्ष के प्रशिक्षण में अर्जित किए गए अनुभवों और उन पर प्रतिभागियों के फीडबैक के आधार पर यह पुस्तिका तैयार की गई है। इसलिए इसमें ज्यादातर सामग्री वह है जिसे कोई भी प्रशिक्षक एक न्यूनतम तैयारी के साथ कहीं और किसी अन्य समूह के बीच सहजता के साथ जरूरी बदलावों के साथ लागू कर सकता है।
विस्तार से इस प्रशिक्षण पुस्तिका के उपयोग के तरीके भीतर के पन्नों में दिए गए हैं। प्रशिक्षक से अपेक्षा है कि वह इस पुस्तिका को प्रशिक्षण में उपयोग करने से पहले पढ़े और प्रशिक्षण की पूर्वशर्तों को पूरा कर ले।
प्रशिक्षक समूह
नयी दिल्ली
सितम्बर 2023