अनुवाद: अभिषेक श्रीवास्तव
हमारी समकालीन सत्ता को कायम रहने के लिए अतीत को बदलना दो वजहों से महत्वपूर्ण है। एक वजह हल की है या कहें एहतियातन है वो यह है कि पार्टी का कोई सदस्य जनता की तरह ही वर्तमान स्थितियों को बरदाश्त करता है चूंकि उसके पास तुलना के लिए कोई मानक नहीं होता। उसे अतीत से इसीलिए काटे जाने की जरूरत होती है।यह इसलिए जरूरी है ताकि वह मान सके कि उसकी जीवन स्थितियां अपने पूर्वजों से कहीं बेहतर हैं और भौतिक सुख-सुविधाओं का औसत स्तर लगातार बेहतर हो रहा है अतीत की परिवर्तनीयता की दूसरी और सबसे ज्यादा अहम वजह यह है कि इससे पार्टी के सही होने का बचाव किया जा सके। केवल इतना ही आवश्यक नहीं है कि हर किस्म के भाषण, आंकड़े और रिकॉर्ड को लगातार अद्यतन किया जाय ताकि यह दिखाया जा सके कि हर मामले में पार्टी की भविष्यवाणियां और आकलन बिलकुल सही थे इसलिए भी ताकि सिद्धांतया राजनीतिक व्यवस्था में किसी किस्म के बदलाव की बात कभी पार्टी को माननी न पड़ जाए क्यों कि किसी के लिए अपना मन बदलना या पार्टी के लिए अपनी नीति बदलना उसकी कमजोरी का स्वीकार होता है।
अतीत की परिवर्तनीयता पार्टी के विचार का केंद्रीय तत्व है। दलील यह है कि अतीत की घटनाएं केवल लिखित रिकॉर्ड और इंसान की स्मृति में पैबस्त रहती हैं, उनका कोई वस्तुगत अस्तित्व नहीं होता है दस्तावेज और स्मृति जो कह दें, अतीत वही हो जाता है। चूंकि सारे रिकॉर्ड पर पार्टी का नियंत्रण है और पार्टी सदस्यों की स्मृति पर भी उसका व्यावहारिक अख्तियार है, इसी से यह तय हो जाता है कि अतीत वही है जो पार्टी अपने हिसाब से तय कर दे। इससे यह बात भी निकलती है कि अतीत भले परिवर्तनीय है लेकिन किसी भी मामले में उसे परिवर्तित नहीं किया गया है अगर एक बार अतीत को वर्तमान के आलोक में इच्छानुसार आकार दे दिया गया तो यह नया संस्करण ही अतीत बन जाता है और अतीत का दूसरा कोई संस्करण अस्तित्व में नहीं होता।यह बात तब भी लागू होती है जब किसी एक ही घटना को एक साल के भीतर कई बार बदलना पड़ जाय। ऐसे हर मौके पर पार्टी का नियंत्रण निरपेक्ष सत्य पर होता है और निरपेक्ष सत्य तो एक ही होता है, जो आज है वही कल था।
हम पाते हैं कि अतीत पर नियंत्रण दर असल स्मृति के प्रशिक्षण पर ही बुनियादी रूप से निर्भर करता है मौजूदा दौर में सत्ता के प्रति एकनिष्ठता के लिहाज से तमाम लिखित दस्तावेजों को बदल देना एक यांत्रिक काम है, लेकिन ये घटनाएं बिलकुल ऐसे ही घटी थीं इसे याद रखना भी जरूरी है। लिहाजा अगर अपनी स्मृति से या लिखित रिकॉर्ड से छेड़छाड़ करके उसे दोबारा व्यवस्थित करना जरूरी है तो फिर यह भी जरूरी होना चाहिए कि जो किया है उसे करके भूल जाएं। ऐसा करने का नुस्खा किसी भी दूसरी दिमागी तकनीक की तरह सीखा जा सकता है। पार्टी के ज्यादातर में बरानइ से सीखते हैं और बेशक वे सभी, जो समझदार भी हैं और निष्ठावान भक्त भी। इसे reality control या वास्तविकता नियंत्रण कहते हैं लेकिन यह दोहराया दोरंगा चिंतन भी है।
दो रंगपन का मतलब है एक साथ दो परस्पर विरोधी विचारों को अपने भीतर रखना और दोनों को मानना। पार्टी के बौद्धिक को यह पता होता है कि उसकी स्मृति को किस दिशा मेंव् यवस्थित करके बदला जाना है। लिहाजा वो यह भी जानता है कि वह यथार्थ के साथ खिलवाड़ कर रहा है, लेकिन दो रंगेपन का इस्तेमाल करके वह खुद को संतुष्ट कर लेता है कि यथार्थ का अतिक्रमण नहीं हुआ है। यह प्रक्रिया निरंतर चलती रहनी चाहिए वरना उतनी सटीकता से इसे लागू नहीं किया जा सकेगा। इस प्रक्रिया को अचेतन भी होना चाहिए अन्यथा इससे जालसाजी का अहसास पैदा होगा, फिर मन में अपराधबोध समा जाएगा दो रंगापन पार्टी की आत्मा है चूंकि पार्टी का अनिवार्य काम दरअसल सचेत तरीके से लोगों को छलना है और साथ ही इसके उद्देश्य की स्पष्टता को भी बनाए रखना है जो कि पूर्ण ईमानदारी के साथ ही मुमकिन है। जानबूझकर झूठ बोलना और उस झूठ में विश्वास भी करना, ऐसा कोई भी तथ्य भूल जाना जो अप्रिय हो, और जब कभी जरूरत आन पड़े उसे निर्वात से खींच कर वापस केवल उतने ही वक्त के लिए ले आना जब तक उसकी जरूरत हो, वस्तुगत यथार्थ के वजूद को नकारना और साथ ही नकारे हुए यथार्थ को संज्ञान में भी लेना- यह सब कुछ अपरिहार्य रूप से अनिवार्य है।
पिछले जमाने के सभी कुली तंत्र इसलिए पतन का शिकार हो गए क्योंकि वे या तो सख्त होगए या फिर नरम पड़ गए। या तो वे मूर्खतापूर्ण आक्रामकता के चंगुल में फंस गए और बदली हुई परिस्थितियों को समझने में नाकाम रहे जिस के चलते उन्हें उखाड़ के फेंक दिया गया। या फिर वे उदार और कायराना होगए और जिस वक्त बल प्रयोग करना था उस वक्त रियायतें दे दीं, जिसके चलते फिर से उखाड़ दिये गए। इसे ऐसे कह सकते हैं कि उनका पतन या सचेतन रूप से हुआ या अचेतन रूप से। इस संदर्भ में पार्टी की यह उपलब्धि है कि उसने ऐसी विचार प्रणाली ईजाद की है जिसमें दोनों स्थितियां एक साथ कायम रह सकती हैं। और किसी भी बौद्धिक आधार पर पार्टी का अस्तित्व स्थायी नहीं बनाया जा सकता। अगर किसी को राज करना है और राज करते जाना है, तो उसे यथार्थ बोध को विस्थापित करने आना चाहिए। राज करने का रहस्य खुद को लगातार सही मानने की आस्था को बनाए रखते हुए अतीत की गलतियों से सबक लेने की ताकत रखने में निहित है।
दिमागी धोखेबाजी की यह एक व्यापक व्यवस्था है। हमारे समाज में जिन्हें इस दुनिया के चलने की सबसे बेहतर जानकारी है वही वे लोग हैं जो दुनिया को वैसा देखने से सबसे दूर खड़े हैं जैसी यह दुनिया है। इसे ऐसे कहें कि समझदारी जितनी ज्यादा होगी, मोहभंग भी उतना ही ज्यादा होगा। व्यक्ति जितना मेधावी होगा, मानसिक रूप से उतना कम स्वस्थ होगा। इस तथ्य का एक स्पष्ट संकेत यह है कि आप जैसे-जैसे सामाजिक स्तर पर ऊपर चढ़ते जाते हैं आप की सनक बढ़ती जाती है। युद्ध के प्रति जिन लोगों का रवैया सबसे ज्यादा तार्किक होता है वे लोग विवादित क्षेत्रों के गुलाम होते हैं। ऐसे लोगों के लिए जंग लगातार मौजूद रहने वाली एक ऐसी सहज आपदा है जो किसी ज्वार की लहरों की तरह उनके ऊपर आती और जाती है। कौन जीत रहा है, यह प्रश्न उनके मतलब का नहीं होता। वे जानते हैं कि मालिकाने के बदलाव का सीधा सा मतलब है कि वे नये मालिकान के लिए पहले जैसा ही काम करते रहेंगे और उनके साथ बरताव भी पहले जैसा ही होता रहेगा। इस मामले में जिन कामगारों को थोड़ा ज्यादा तवज्जो दी जाती है, जिन्हें हम जनता के लोग कहते हैं, वे जंग के प्रति बीच-बीच में जागरूक होते हैं। इसलिए जरूरत पड़ने पर उन्हें डर और नफरत की सनक में उकसाया जा सकता है लेकिन उन्हें उनके हाल पर ही छोड़ दिया जाय तो वे लंबे समय तक भुलाए रखते हैं कि युद्ध चल रहा है।
युद्ध के प्रति खालिस उत्साह पार्टी की कतारों में, खास कर भीतरी हलके के कार्यवाहकों में पाया जाता है। दुनिया को जीतने में सबसे ज्यादा विश्वास वे ही करते हैं जो जानते हैं कि ऐसा संभव नहीं है। परस्पर विरोधी कोटियों का – ज्ञान के साथअ ज्ञान, निराशावाद और धर्मांधता का – इस अजीब तरीके से आपस में जुड़ा होना ही हमारे समाज का प्रमुख पहचान लक्षण है जो दूसरों से इसको अलग करता है। इसकी आधिकारिक विचारधारा विरोधाभासों से भरी हुई है जबकि उसकी कोई व्यावहारिक आवश्यकता नहीं है। पार्टी इस तरीके से हरेक उस सिद्धांत को खारिज और बदनाम करती है जिसके पक्ष में मूल समाजवादी आंदोलन खड़ा था और ये काम वह समाजवाद के नाम पर ही करती है। कामगार तबके के प्रति पार्टी जैसे अपमान का प्रचार करतीहै वैसा सदियों में नहीं देखा गया। बड़े व्यवस्थित ढंग से पार्टी परिवार की एकजुटता का अवमूल्यन करती है (उदाहरण) और अपने नेता को एक ऐसे नामों से पुकारती है जो पारिवारिक वफादारी की भावना को सीधा अपील करता है यहां तक कि हमारे ऊपर राज करने वाले विभागों और योजनाओं के नाम भी बेशर्मी का सबब हैं चूंकि अपने नाम से वे ठीक उलटा काम करते हैं। (नीतिआयोग, आदि) ये विरोधाभास दुर्घटनावश नहीं हैं, न ही यह किसी पाखंड का नतीजा है। यह दोरंगेपन के सचेत उदाहरण हैं, क्यों कि विरोधों के सामंजस्य से ही सत्ता अनिश्चितकाल तक कायम रखी जा सकती है। पुराने चक्र को तोड़ने का कोई और तरीका नहीं है। यदि इंसानी बराबरी को हमेशा के लिए दूर कर देना हो- मतलब जिन्हें हम ऊंचा कहते हैं उन्हें हमेशा वहीं बने रहना हो- तो समाज में व्याप्त मानसिक स्थिति एक नियंत्रित किस्म का पागलपन होनी चाहिए।