पूंजीवाद और लोकतंत्र के ऐतिहासिक रिश्तों के आईने में संवैधानिक मूल्यों की परख
प्रस्तुत लेख पॉपुलर एजुकेशन एंड ऐक्शन सेंटर (पीस), दिल्ली द्वारा अक्टूबर 2021 में संवैधानिक मूल्यों पर शुरू की गयी एक फैलोशिप के तहत चलाए गए अभिमुखीकरण सत्र में दिए गए पहले ऑनलाइन व्याख्यान का संपादित रूप है। पीस के मुख्य कार्यकारी और प्रशिक्षक अनिल चौधरी ने सामाजिक-आर्थिक न्याय, पत्रकारिता और कला व संस्कृति के फैलोज़ को इस व्याख्यान में संबोधित किया था।
गाँधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में रहते हुए जो सबसे महान कार्य किया था वह था एक गिरमिटिया मजदूर रामनाथन को मालिक बदलने की इजाजत दिलवाना। यूरोप में दास प्रथा के समय दास भूमि और भू-स्वामी से जुड़ा था। दास अपने स्वामी को छोड़ नहीं सकता था। वह अपनी मनमर्जी से अपने मालिक का चुनाव नहीं कर सकता था। उस समय इन दासों को मालिक बदलने की इजाज़त दिलवाना एक क्रांतिकारी काम था। इसी कदम ने यूरोप में आगे चलकर दास प्रथा को समाप्त कर पूंजीवाद की नींव रखी।
सत्रहवीं सदी में अंग्रेजों ने भारतियों को गुलाम बना कर विदेश भेजना शुरू किया। मजदूरों से कागज पर अंगूठे का निशान लगवा कर एक एग्रीमेंट (अनुबंध) करते थे उसे मजदूर और मालिक गिरमिट कहते थे। इसी दस्तावेज के आधार पर मजदूर गिरमिटिया कहलाते थे। हर साल 10-15 हज़ार मजदूर गिरमिटिया बना कर फिजी, ब्रिटेन, डच गुयाना, ट्रिनीदाद टोबेगो, नटाल (दक्षिण अफ्रीका) भेजे जाते थे। यह सब सरकारी नियम के तहत था। इस कारोबार को करने वालों को सरकारी संरक्षण प्राप्त था। सन 1840 के आस-पास यूरोप में दास प्रथा पूरी तरह से खत्म हुई। 1770 के बाद यूरोप में एक नया तबका उभरा जो भूमि और स्वामी से जुडा हुआ नहीं था। वह गुलाम नहीं था। वह एक काम से भी जुड़ा हुआ नहीं था। उसको स्वतंत्रता थी मशीन पर काम करने की। यह तबका गांव से शहर आया था। इसे मजदूर कहा गया। पूंजीवाद का विकास शहरों में हो रहा था। शहरों में ही कल कारखाने लग रहे थे। मशीनों का विकास हो रहा था। इन मशीनों पर काम करने के लिए जरूरी था कि दासों को मुक्त किया जाय। खेती के साथ-साथ वह मशीनों पर काम करने के लिए स्वतंत्र हो। पूंजीवाद का विकास शहरों में हो रहा था इसलिए नागरिक को सिटिजन कहते हैं जिसका सीधा सम्बन्ध सिटी (शहर) से था। गांव वालों को सिटिजन नहीं माना जाता था। सिटिजन के लिए जरुरी था कि वह सिटी में रहे, वहां कार्य करे।
दासों को भू-स्वामी से मुक्त करना पूंजीवाद की जरूरत थी। इसी वजह से स्वतंत्रता-समानता पैदा हुई और नारे बने। स्वतंत्रता-समानता धीरे-धीरे मुख्यधारा के अंदर साहित्य के जरिये, आंदोलनों में नारे के रूप में आते गए। यह नारा सबसे पहले 1871 में पेरिस कम्यून में लगा। फिर रूसो, वाल्टेयर जैसे दार्शनिकों ने इस पर लिखना शुरू किया। पूंजीवाद का उद्भव जिन परिस्थितियों में हुआ उसके बाद उसके विकास के लिए जरूरी था कि समानता, स्वंतंत्रता, बंधुत्व और न्याय की बातें की जाएं। धीरे-धीरे दास प्रथा को खत्म किया जाने लगा। दास प्रथा को समाप्त करने में इस स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय का महत्वपूर्ण स्थान है जो दास प्रथा को समाप्त करने में एक वैचारिक आधार बना।
पूंजीवाद को अपने विकास के लिए जरूरत थी एक ऐसे राजनैतिक ढांचे की जिसकी मदद से सत्ता पर काबिज हो सके। उस ढांचे के रूप में डेमोक्रेटिक रिपब्लिक (प्रतिनिधित्व आधारित जनतंत्र) की अवधारणा थी। ऐसा नहीं है की केवल एम.पी. और एम.एल.ए. चुनकर ही जनतंत्र लाया जा सकता है। ग्राम सभाओं में जो होता है क्या वह जनतंत्र नहीं है? उसमें कोई प्रतिनिधि नहीं होता है। गांव सभा का हर व्यक्ति गांव सभा का मेंबर है। उसे मेंबरशिप के लिए कोई सर्टिफिकेट नहीं लेना पड़ता है। उसकी मेंबरशिप के लिए कोई कार्ड नहीं होता है। ग्राम सभा की बैठकों में सभी हिस्सेदारी करते है। क्या वह जनतंत्र नहीं है? लेकिन यह जो रिप्रेजेंटेटिव (प्रतिनिधित्व) वाली व्यवस्था है, इसके ऊपर एक बार पूंजी का वर्चस्व हो जाय तब फिर कोई इसे डिगा नहीं सकता क्योंकि यह देखने में सबकी लगती है लेकिन होती नहीं है। इस पर कब्ज़ा पूंजी का होता है।
पूंजीवाद और डेमोक्रेसी का जो रिश्ता है वह वाकई में जन्म का रिश्ता है और एक-दूसरे का भला करने के लिए है। यह प्रतिनिधित्व वाला जनतंत्र बिना पूंजी के चल नहीं सकता है। बिना पूंजी के ग्राम सभा चल सकती है, लेकिन यह ग्राम सभा पूरे भारत में नहीं चल सकती। 100 करोड़ लोग बैठक करके फैसला नहीं कर सकते। वे देश स्तर पर बैठकों में हिस्सा नहीं ले सकते। तब क्या करना होगा? चुनाव लड़ना होगा। प्रतिनिधि चुनना होगा और प्रतिनिधि चुनने से ही पैसे का खेल शुरू हो जाता है। इस रिप्रेजेंटेटिव डेमोक्रेसी (प्रतिनिधि जनतंत्र) के बारे में रूसी क्रांति के नेता लेनिन ने 100 साल पहले कहा था कि रिप्रेजेंटेटिव डेमोक्रेसी पूंजी के लिए एक ऐसा कवच है जो उसके लिए सबसे मुफीद है। एक बार इस पर पूंजी का वर्चस्व हो गया तो कोई पार्टी या व्यक्ति बदलने से इस पर कोई असर नहीं होगा। इसलिए जनतांत्रिक दिखने वाली यह व्यवस्था जिसको सब अपना मानते है उसके अंदर पूंजी को कभी नुकसान नहीं पहुंचता। 100 वर्ष पहले लेनिन ने यह बात समझ ली और इसे लिखा तथा लोगों को बताया। उन्होंने एक चुनाव में हिस्सा लेने के बाद दूसरा चुनाव होने से पहले सत्ता पर कब्ज़ा कर लिया क्योंकि वह समझ चुके थे कि पूंजी का वर्चस्व एक बार स्थापित हो जाने के बाद इसको जड़ से हिलाना बड़ा मुश्किल है।
250 वर्षो में पूंजीवाद का जैसे-जैसे विकास होता रहा वैसे-वैसे डेमोक्रेसी का चरित्र भी बदलता रहा। पूंजीवाद की एक विशेषता है कि वह हमेंशा संकटग्रस्त रहता है। शुरुआती दौर में संकट लम्बे-लम्बे समय के बाद आता था। फिर दो संकटों के बीच में समय कम होता गया। इक्कीसवीं सदी में उसका संकट रोज़ का हो चुका है। पूंजीवाद को यह पता है कि इस संकट का कोई स्थाई इलाज नहीं है। इसलिए वह उसका जवाब ढूंढने में समय बर्वाद नहीं करता, उसका विकल्प नहीं खोजता। उसको पता है कि मुनाफा लगातार बना रहेगा तो संकट आना निश्चित है इसलिए वह विकल्प ढूढने में समय बर्बाद नहीं करता। वह हमेशा संकट को आगे खिसकाने में विश्वास करता है। अभी के लिए जुगाड़ निकालो, 10 वर्ष संकट टल जाये फिर आगे देखा जाएगा। यही पूंजीवाद के 250 वर्षो का इतिहास है।
जब-जब पूंजीवाद का संकट एक हद से ज्यादा बढ़ जाता है तब डेमोक्रेसी को स्थागित कर दिया जाता है। सबसे पहले 1933 से 1943 में जब जर्मनी में हिटलर आया। वह अपने समय की परिस्थितयों की पैदाइश था। पहला विश्व युद्ध उपनिवेश के बंटवारे को लेकर हुआ जिसमें जर्मनी पराजित हुआ। पराजित जर्मनी के ऊपर बहुत सारे जुर्माने किये गए। संकट से उबरने के लिए डेमोक्रेसी को स्थगित करके विश्व को मंदी के संकट से निकाल लिया गया। इस मंदी से जर्मनी कैसे उबरे इसके लिए हिटलर पैदा हुआ। 1972-73 में चिली में अलेंदे प्रधानमंत्री थे। उनकी निर्वाचित सरकार थी। उनकी सरकार को अपदस्य करके पिनोचे नाम के तानाशाह को चिली की सत्ता दे दी गयी। नवउदारवाद, आइ.एम.एफ, विश्व बैंक की योजनाओं के प्रयोग चिली में पिनोचे की तानाशाही में किये गए। ये प्रयोग हो गये। पूरी व्यवस्था बन गयी। फिर इस व्यवस्था के नियम दुनिया के सभी देशों पर लागू हो गये तब फिर चिली में डेमोक्रेसी वापस लायी गयी। 1989 में चिली में चुनाव कराये गए। एक बार फिर वहां चुनी हुई सरकार बनी है। आज हम लोग उसी नवउदारवाद, आइ.एम.एफ, विश्व बैंक की योजनाओं को भुगत रहे हैं। जो लोग चुनाव से बाहर रह कर समाज को बदलने की कोशिश कर रहे है, वे भी समाज को चुनाव के जरिये बदलने आ जाते हैं तो वह भी उसी रंग में रंग जाते हैं। पूंजी का वर्चस्व इतना मजबूत है कि एक बार पूंजी का वर्चस्व हो जाता है तो इस व्यवस्था में पार्टियों और व्यक्तियों के बदलने से कोई फर्क नहीं पड़ता।
हमारे पड़ोसी देश नेपाल में जब सामाजिक बदलाव में लगे लोग चुनाव में हिस्सा नहीं लिए थे उनका जनता के बीच में ग्राफ लगातार बढ़ता जा रहा था। जब यह लोग भी चुनाव में चले गए तो चुनावी रंग में रंग गये। दुनिया के बड़े जनतंत्र कहने वाले अमेरिका, फ़्रांस, जर्मनी, इंग्लैंड में कोई भी सरकार आये राजकाज वैसा ही चलता है। उनकी नीतियों में कोई परिवर्तन नहीं होता है। इन देशों में राजनीति के दो ध्रुव हैं। दोनों ध्रुव आर्थिक दर्शन के रूप में एक ही बात मानते हैं। अमेरिका में दो पार्टिया है। अमेरिकी जनता को यह स्वतंत्रता है कि गधा या हाथी में से एक का चुनाव कर ले। इन पार्टियों का चुनाव चिन्ह हाथी और गधा है। अमेरिकी जनता हाथी चुने या गधा राज काज दोनों का एक जैसा ही है। यही हाल इंग्लैंड का भी है।
अपने देश में भी धीरे-धीरे यही हो रहा है- एक यू.पी.ए. और एक एन.डी.ए. है, तीसरे की कोई बात ही नहीं है। इन दोनों के आने जाने से कोई फर्क नहीं पड़ता। पूंजी जब ज्यादा संगठित और व्यवस्थित होती है तब उस समय जनतंत्र भी उतना व्यवस्थित और संगठित दिखाई देता है। जैसे-जैसे पूंजी में आवारापन आना शुरू हुआ, वित्तीय पूंजी औधोगिक पूंजी पर भारी पड़ने लगी, तब से जनतंत्र के अंदर जिस पूंजी और बाहुबल से नेता जीतते थे अब वही पूंजी और बाहुबल चुनाव लड़ते है और जीतते हैं। किसी भी पार्टी को ले लीजिए सब पार्टियों में दबंग और पूंजी वाले प्रतिनिधि मिलेंगे। जब व्यवस्थित पूंजी थी तब कभी-कभी कोई पूंजीपति चुनाव लड़ जाता था। कोई सीधे चुनाव लड़ने नहीं आता था। सबके काम चलते रहते थे, लेकिन पार्टी बदलने से भी कोई फर्क नहीं पड़ा। हम देख रहे हैं कि पिछले सात सालों से वही काम हो रहा है जो यू.पी.ए. में होता था।
1991 में आयी नयी औद्योगिक आर्थिक नीति के बाद से सब तरह की सरकार देख ली गयी- कांग्रेस, यू.पी.ए., एन.डी.ए. और तीसरा मोर्चा। सभी को देखा लेकिन आर्थिक नीतियों में कोई फर्क नहीं पड़ा तो यह समझने की जरूरत है कि संकटग्रस्त पूंजीवाद के चलते जनतंत्र में एक–एक तिल से तेल निकलना मुश्किल काम है क्योंकि इसको इजाजत तभी तक है जब तक ये पूंजीवाद के काम की है। डेमोक्रेटिक इंस्टीट्यूशन में डेमोक्रेटिक कायदे कानूनों को उतना ही ज्यादा बढ़ाया जाता है जितना संकट बढ़ता है।
हमें एक बात समझने की जरूरत है कि हम सरकार से डील करते हैं और संविधान सरकार के दिशानिर्देश के लिए एक पुस्तिका है। सरकार व्यवस्था का एक भाग है। सरकार पूरी व्यवस्था नहीं है। व्यवस्था सरकार के बाहर है। सरकार उसका एक अंग है। शिक्षा या राजनीतिशास्त्र में जो शब्द इस्तेमाल होता है वह राज्य-राष्ट्र है। राष्ट्र क्या है? एक विशिष्ट सीमा के अंदर रहने वाले लोग। एक संप्रभु शासन और सरकार। संप्रभु समुदाय का मतलब है कि एक सीमा के अंदर रहने वाले लोगों का एक ऐसा समाज जो अपनी जिंदगी और भविष्य के बारे में निर्णय लेने को स्वायत्त है। संविधान की प्रस्तावना में “हम भारत के लोग” क्यों लिखा गया? यह इशारा है कि संप्रभुता लोगों में है, सरकार में नहीं है। हम भारत के लोग इसको संप्रभु राज बनाने की घोषणा करते हैं। यह घोषणा किसी व्यक्ति या समिति की ओर से नहीं की गयी। हम संप्रभु राष्ट्र हैं कि घोषणा हम लोगों की ओर से की गयी। यह एक जटिल मसला है।
इसको इस तरह से समझने की कोशिश करें कि अगर सरकार ही सबसे बड़ी ताकत है और सत्ता है और सत्ता का मतलब ही सरकार है तो ऐसा क्यों होता है कि सरकार के बनाए हुए कानून और नियम लागू नहीं होते? कुछ खास तरीके के कानून जो सरकार बनती है वह लागू नहीं होते हैं। कुछ खास तरीके के कानून जो सरकार बनाती है वह रातोरात लागू हो जाते हैं? आप लोगों में से तमाम लोग उ.प्र, झारखण्ड और उड़ीसा के हैं जिसका बहुत बड़ा हिस्सा जमींदारी व्यवस्था के अंदर रहा। जमींदारी उन्मूलन कानून 1952 में बना था लेकिन आज तक उसका उन्मूलन नहीं हुआ। 1990 में एक कमीशन की रिपोर्ट आयी जिससे पता चला कि जो जमींदारी क्षेत्र है उसमें लोगों को लैंड टाइटल नहीं मिले हैं। जोतदारो को जमीन हस्तांतरण नहीं हुआ है। सभी मामले मुकदमे में अटके हुए हैं। फिर एक नया कानून लाया गया हदबंदी का जिसके अंदर एक खास सीमा से ज्यादा जमीन कोई नहीं रख सकता। वह भी लागू नहीं हुआ। हम देखते हैं कि जमीन से जुड़े हुए भूमि-स्वामियों के स्वार्थ के खिलाफ जाने वाले कानून लागू नहीं होते है। इससे यह साबित होता है कि अभी भी भू-स्वामियों का एक वर्ग ऐसा है जिसकी ताकत सरकार के ऊपर है। सरकार उस स्वार्थ के विरोध में जाने वाले कानून लागू नहीं करती।
इसी तरह महिलाओं के पक्ष में जो भी कानून आते है वह लागू नहीं हो पाते क्योंकि हमारा समाज पितृसत्तात्मक है। इसकी जड़ें ज्यादा व्यापक हैं। समाज के अंदर यह ज्यादा मजबूत है। इससे सरकार झगड़ा मोल नहीं लेती है। सरकार उसके सामने छोटी पड़ जाती है। बड़ा भू-स्वामी, पितृसत्ता, बड़ा व्यापारी, बड़े पूंजी वाले यह सब लोग ताकत हैं। इन्हीं ताकतों से राज्य का निर्माण होता है। इसलिए कहा जाता है कि राज्य-राष्ट्र जो है वह एक वर्गीय संस्था है। उसमें वर्चस्व रखने वाले लोगों को रूलिंग क्लास (शासक वर्ग) कहा जाता है। जब हम किसी समाज को समझने की कोशिश करते हैं तो समाज के अंदर जो सत्ता समीकरण है उसमें कौन सी ताकतें ऐसी हैं जो सरकार से ज्यादा ताकतवर हैं उनसे ही जिस चीज का निर्माण होता है उसे राज्य-राष्ट्र कहा जाता है। यह सरकार से परे होती है और जो संविधान है उसके अंदर लागू होता है।
हमारा संविधान बताता है कि सरकार का काम विभिन्न तबकों के अंदर सामंजस्य बैठाने का है जिससे देश टूटे नहीं। अलग-अलग तबके के लोग, पूंजीवादी तबका, व्यापारी, उद्योगपति, जिसकी पूंजी लगी है वह सबसे ज्यादा टैक्स भरता है और सरकारें उससे चलती हैं। उसकी एक ताकत है। दूसरी तरफ मजदूर, गरीब, किसान है, उनको मिला कर चलना है। इसलिए पूंजीवाद के साथ जब डेमोक्रेसी पैदा हुई उसमें आगे चल कर कल्याणकारी राष्ट्र और राज्य की अवधारणा लायी गयी। कल्याणकारी राष्ट्र और राज्य की अवधारणा इसलिए लायी गयी कि जो डेमोक्रेटिक रिपब्लिक है उसके अंदर संतुलन बना रहे। राजनैतिक-अर्थशास्त्र के अंदर जो कल्याणकारी राज्य की पैदाइश है वह सामाजिक समझौते के आधार पर हुई। यह अवधारणा लायी गयी कि अपनी सामन्य इच्छा के जरिये एक सीमा में रहने वाली जो जनता है वह कुछ लोगों को सार्वजानिक जनजीवन के संचालन के लिए सत्ता देती है। सत्ता संचालन करने के लिए जो वर्ग है उसकी जिम्मेदारी बनती है कि बाकी जनता की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति करे। चुनाव को एक मार्ग बना दिया गया।
चुनाव के जरिये जनता की सामान्य इच्छा परिलक्षित होती है। अब ये जो चुने हुए प्रतिनिधि हैं उनको सरकार इस तरह चलानी है कि जिस जनता के वोट से चुन कर आये हैं उसकी मौलिक आवश्यकताएं भी पूरी हों। यह करने की वजह से सारा अर्थशास्त्र अलग तरीके से देखा और लिखा जाता था। एक समय विशेष के अंदर कल्याणकारी राज्य पूंजीवाद के विस्तार में और उसको स्थायित्व प्रदान करने में अच्छा योगदान किया। हमारे यहां भी राष्ट्र-राज्य का उदय रिपब्लिक के रूप में हुआ। जब हम भारत के लोगों ने मिलकर अपने को संप्रभु यूनियन रिपब्लिक राष्ट्र घोषित किया तब से कल्याणकारी व्यवस्था ही चालू थी।
आजादी के बाद शुरूआती दौर में जब पूंजीपतियों के पास पैसा नहीं था उस समय बड़े बांध बनाकर बिजली बनाना, बड़ी फ़ौज रखना, बड़ी एयरलाइंस चलाना, संचार व्यवस्था, पोस्टेज व्यवस्था आदि व्यवस्था चलाने के लिए हजारों करोड़ रुपये चाहिए था और उस समय देश के सबसे बड़े पूंजीपति के पास 45 करोड़ की कुल पूंजी थी। वह बिजली बनाने के लिए बाँध नहीं बना सकते थे। तो उन लोगों ने नेहरू से कहा कि यह आप करिए। अब जब बिजली, सड़क, संचार सब सरकार बना और चला रही तो वह इस तरह से चलायी गयी कि सबकी जरूरतें पूरी हों।
सन 1990 के बाद से समझाया जा रहा है कि वह सब गलत था। उसी की वजह से हालत खराब है। यह मिथ्या प्रचार है। असली बात यह है कि वह कल्याणकारी दौर था। कल्याणकारी राज्य का मतलब ऐसा था कि रेल पटरियों पर मालगाड़ी ज्यादा चलेगी, पैसेंजर वाली कम चलेगी, लेकिन चलेंगी दोनों। उस दौर में कभी यह नहीं कहा गया कि मालगाड़ी पटरी अलग होगी। कभी यह नहीं कहा गया कि पोस्टल व्यवस्था दो तरह की होगी। सबकी चिट्ठी उतने ही पैसे में उसी स्पीड से जाएगी। ज्यादा पैसे देकर स्पीड पोस्ट हो जाएगी ऐसी बात नहीं थी। सेवाओं के अंदर श्रेणीबद्धता नहीं थी, वर्गीकरण नहीं था। सरकारी खजाने से खर्चा करके इस तरीके की व्यवस्था की जाती थी कि उससे सबका भला हो और उससे पूंजीपतियों के भी फायदे होते थे। यातायात, पोस्टेज, संचार का सस्ता होना श्रमिक के सस्ते होने से जुड़ा था।
सन 1970 के दशक में अर्थशास्त्र में पढ़ाया जाता था कि घाटे का बजट विकास का द्योतक होता है। अब उसे सिर के बल खड़ा कर दिया गया है- घाटे का बजट, मतलब घाटा बढ़ रहा है। हमें पढाया गया है कि जब सरकार घाटा करेगी तभी विकास करेगी। सरकार कम्पनी नहीं है। सरकार बनी इसलिए है कि जितना उसके पास राजस्व आएगा उससे ज्यादा खर्च करेगी तब न विकास होगा। अभी तक जो कुछ भी बना है वह राजस्व की देन है। जब सरकार अपने राजस्व से ज्यादा खर्च करती है तो उस से तय होता है कि विकास हो रहा है क्योंकि उस समय माना जाता था कि विकास सबके लिए होता है। इसलिए देश को कल्याणकारी राज्य माना जाता था। सन 1978 में डी.टी.सी बसों में किराये की तीन श्रेणियां थीं- 20 पैसे, 60 पैसे और एक रुपया। इसे बढ़ाने की बात की गयी तो इसका जबरदस्त विरोध हुआ, बोट क्लब पर धरने किये गए। सरकार को किराये को बढ़ाने की योजना वापस लेनी पड़ी क्योंकि कल्याणकारी व्यवस्था की उस समय स्वीकृति थी। इसी नजरिये से सब कुछ देखा जाता था। ऐसा नहीं था कि उस समय पूंजीवाद या बाजार का प्रभाव नहीं था। बस का किराया सस्ता होगा तभी कम मजदूरी पर मजदूर काम करेगा। अगर एक दिन में 40 रूपये यातायात पर खर्च हो जाएगा तो क्या मजदूर 100 रूपये में काम कर पाएगा? अगर 10 रूपये खर्च होगा तभी वह 100 रुपये में काम कर पाएगा। इसलिए उस समय राशन की व्यवस्था शुरू की गयी। यही कल्याणकारी राज्य की प्रधानता थी।
उस समय वेज बोर्ड था जो मजदूरी तय करता था। राशन की दुकान से मिलने वाला आटा, चावल, दाल, नमक, माचिस महंगी होगी तो कम मजदूरी पर मजदूर नहीं मिलेगा। यही सब वेज बोर्ड आकलन करके मजदूरी निर्धारित करता था। आज वेज बोर्ड का नाम ही किसी को पता नहीं होगा। मजदूर बाजार और उद्योग में उपलब्ध रहे इसके लिए कल्याणकारी राज्य ने बहुत कुछ सेवा का कार्य किया। कल्याणकारी राज्य को हटाने का ड्रामा तब शुरू हुआ जब से वित्तीय पूंजी का वर्चस्व पूंजीवाद के अंदर स्थापित हुआ और बैंको के अंदर पूंजी बढ़ने लगी।
इसे एक उदाहरण से समझा जा सकता है जिसे मै 20 साल पहले देता था। अगर मेरी 100 करोड़ की लाटरी निकल आए तो मैं उसका क्या करूँगा? अगर 100 करोड़ की लाटरी मेरी दादा जी की निकली होती तो वह निश्चित रूप से सीतापुर में कारखाना लगवाते। मेरी 1990 के बाद निकली है तो अगर मै कारखाना लगाऊं तो नालायक हूं। मुझे शेयर मार्किट में लगाना चाहिए। शेयर में मुनाफा ज्यादा है। उद्योग में मुनाफा कमाने की गुंजाइश कम है चूंकि अब तुम कारपोरेशन हो न कि कम्पनी। कारपोरेशन का मतलब होता है शेयर होल्डर। हमारे पास 30%, बाकी 70% दूसरे लोगों के पास है शेयर के रूप में। शेयर होल्डर को हर वर्ष 10% से ज्यादा देना है। कारपोरेशन तभी जिन्दा रहेगा जब शेयर होल्डर का पेट भरते रहो। जब शेयर होल्डर का पेट भरा रहेगा तभी पैसा लगेगा नहीं तो डूब जाओगे। यह व्यवस्था कल्याणकारी राज्य के लिए है ही नहीं।
1990 के बाद कांग्रेस, तीसरा मोर्चा, बीजेपी किसी की भी सरकार रही हो सबने बचत को हतोत्साहित किया। यू.टी.आई का 14% ब्याज मिलता था, आजकल 5-7% मिलता है। फिक्स पैसा 5 वर्ष में दूना हो जाता था जो सरकार की योजना थी। सरकार उधार लेती थी और बड़ी-बड़ी परियोजाएं, बांध, संचार, रेल, डाकतार, परिवहन पर खर्च करती थी। अब सब हो गया। अब मुचुअल फण्ड में जाओ। जिस बैंक में आपका खाता है बैंक वाले आपके पीछे पड़ जाएंगे कि मुचुअल फण्ड ले लो, हमारा टारगेट है। मुचुअल फण्ड का मायने सट्टे में पैसे लगाओ। खुद नहीं लगा सकते हो तो बैंक के माध्यम से लगाओ। मुचुअल फण्ड सट्टा आधारित है। यू.टी.आई. और सरकारी सर्टिफिकेट थे वह ब्याज आधारित थे, सट्टा आधारित नहीं थे।
अब संकट इतना गहरा गया है कि थोड़ा बहुत सुधार करके संकट को निपटाने का प्रयास किया जा रहा है, लेकिन यह सम्भव नहीं हो पा रहा है। चिली की घटना पहले प्रयोग का शुरुआती बिंदु था। यह जो नया कृषि कानून आया यह चिली में पिनोचे की सरकार के समय लागू किये गए थे। इसका परिणाम यह हुआ कि जो किसान थे वह अपने खेतों में मजदूर हो गए। 1989 में जब हम चिली गए थे तो वहां हमने देखा खेत बड़ी-बड़ी कम्पनियों के फार्म बन गए थे। वहीं पैकिंग मशीन लगी हुई थी। सेब, संतरा, सब्जियां पैक हो कर योरोप जा रहे थे क्योंकि योरोप में बर्फ गिर रही थी और वहां यह पैदा नहीं हो रहे थे। चिली में गर्मी थी, वहां सब पैदा हो रहा था। उसे चिली की जनता नहीं बल्कि अमेरिका और योरोप की जनता खा रही थी। यह है नवउदारवाद!
पूंजीवाद सरकार से कहता है कि कल्याणकारी राज्य हम वहन नहीं कर सकते लेकिन बिना सरकार के इनका काम भी नहीं चल सकता। नवउदारवाद के विचारक कहते हैं कि बाजार के लिए सरकार की जरूरत नहीं है। बाजार व्यवस्था अपने आप में स्वायत्त है। जॉर्ज बुश सीनियर ने 1992 में पर्यावरण के मुद्दे पर कहा था कि बाजार पर छोड़ दो वो सब कुछ देख लेगा। मुनाफा शाश्वत नहीं हो सकता। जितनी भी सेवाएँ हैं- बिजली, रेल, यातायात जो भी है- वे सीमित मुनाफे में ही चलायी जा सकती हैं। अब सब्र का बाँध टूट रहा है। चिली से यह नवउदारवाद शुरू हुआ था। आज वहां शिक्षा के व्यावसायीकरण के खिलाफ चलने वाले आन्दोलन का छात्र नेता राष्ट्रपति चुना गया है। चक्र पूरा हो चुका है। अलेंदे को हटा कर पिनोचे को बैठा कर जो प्रयोग किया गया, पूरी दुनिया में जिसे फैलाया गया वह वहीं अपनी पुरानी जगह फिर पहुँच गया। जिन मुल्कों में 30 साल पहले नवउदारवादी नीतियां और सुधार लागू किये गये उन सभी मुल्कों में सत्र पूरा होने की घंटी बज रही है।
इन तीन-चार एंगल से संवैधानिक मूल्यों को समझने की कोशिश करें तो यह बात समझ में आएगी कि स्वतंत्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व के मूल्य इतना स्वभाविक और सर्वग्राही होने से बावजूद ये लागू क्यों नहीं होते हैं। पूंजीवाद और संवैधानिक मूल्यों के रिश्ते पर अगर हम नजर रखेंगे तो आपको लगेगा कि आज की तारीख में गणतंत्र को हम जिस रूप में चाहते हैं वह आज की पूंजीवाद की जरूरतें पूरा नहीं करता है। पूंजीवाद 2001 की घटना को उदाहरण बना के हर जगह डेमोक्रेसी के पर कतरने में लगा हुआ है। सारे सुधार फेल हो जाने के बावजूद सरकारों को मजबूर किया जा रहा है कि वे उसे लागू करते रहें। इससे एक बात साफ हो जाती है कि गणतांत्रिक व्यवस्था को बनाए रखने और उसे बचाए रखने की जिम्मेदारी सभी चक्रों से लौट कर हम भारत के लोगों तक ही पहुँचती है। जनता सोचेगी, चाहेगी, तो यह बचेगा। अगर वह नहीं चाहेगी, कोशिश नहीं करेगी तो पूंजीवाद जिस तरह के जनतंत्र को चाहता है वैसा ही होगा। सब एक ही बार में हो जाय तो अच्छा है। एक राष्ट्र एक चुनाव, एक देश, एक टैक्स। सभी कानून एक साथ रद्द हो जाएं तो और अच्छा। भाजपा कानून बनाए तो यूपीए वाले बायकॉट करें, यूपीए वाले कानून बनाएं तो भाजपा वाले बायकाट करें।
कांग्रेस के तरीके में थोड़ा फर्क है। कांग्रेस मिल-जुल के कानून बनाने की कोशिश करती है तो वह समय खाती है। भूमि अधिग्रहण कानून बनाने में सबसे सलाह लेकर चार साल लगा दिया जो काम का नहीं बना। मोदी ने आते ही उसे रद्द कर दिया और अमेंडमेंट ले आये। धारा बदल गयी। कांग्रेस ने सलाह लिया तो काम का नहीं बना। बिना सलाह लिए भाजपा ने बनाया (कृषि कानून) तो काम का बन गया।
आप देखें तो जनतंत्र और संविधान को कौन बचा रहा है, स्पीकर, एमपी, राष्ट्रपति, राज्यपाल ये लोग शपथ लेकर सत्ता पर काबिज है। उन्होंने नहीं बचाया। बचाने की ऊर्जा हम भारत के लोगों से आ रही है। हम भारत के लोग किसानों के रूप में दिल्ली की सड़कों पर बैठे हों या हर नगर के हर चौराहों पर रोज लड़ने वाले लोग हों, जनतंत्र उन्हीं लोगों से बच रहा है। हमें इन संवैधानिक मूल्यों को बचाने के उपाय निकालने होंगे। अपने संगठन में इन मूल्यों को कैसे स्थापित करें यह सोचना होगा। अगर हम संवैधानिक मूल्य आत्मसात कर सकें और अपने परिवार, सहकर्मी, संगठन के लोगों के साथ काम करते समय इन्हें लागू कर सकें तो यह स्पष्ट होगा कि हम अपने भीतर इन मूल्यों की रक्षा कर रहे हैं। इस मामले में हमें ही एक मिसाल कायम करनी होगी।