सत्र संचालन
पिछले सत्र में इमरजेंसी के बाद से लेकर आर्थिक मंदी के कालखंड तक के प्रमुख पड़ाव याद दिलाने के बाद प्रशिक्षक प्रतिभागियों को गतिविधि के लिए 2010 से लेकर वर्तमान तक यानी करीब डेढ़ दशक की ऐतिहासिक झलकियों की एक सूची देगा (‘सत्र 15 की गतिविधि’ देखें)।
गतिविधि 1
इस गतिविधि के लिए प्रतिभागियों के तीन बड़े समूह बनाने हैं या फिर उन्हीं पुराने समूहों में अभ्यास कार्य दे देना है। प्रत्येक समूह को दी गई सूची के घटनाक्रम को तीन श्रेणियों में विभाजित करना है:
- राजनीतिक घटनाक्रम
- आर्थिक घटनाक्रम
- संस्थानिक घटनाक्रम
एक चार्ट पेपर पर हर समूह को तीन खाने बनाकर घटनाओं को तीन श्रेणियों में दर्ज करना है। इस अभ्यास के लिए एक घंटे का समय दिया जा सकता है।
समय पूरा होने के बाद हर समूह को अपनी प्रस्तुति देनी है और चार्ट पेपर को बोर्ड पर सबके अवलोकन के लिए टांग देना है।
प्रशिक्षक ध्यान दें
प्रशिक्षक को तीनों चार्ट पेपर में समान परिणामों और भिन्न परिणामों को अलग-अलग रंग के मार्कर से चिह्नित करना है। फिर बोर्ड पर उन घटनाओं को दर्ज कर देना है जिनके बारे में समूहों की राय अलग है।
एक-एक कर के उन घटनाओं पर समूहों के बीच चर्चा करवानी है कि क्या सोचकर उन्होंने उक्त घटना को उक्त श्रेणी में डाला। प्रत्येक समूह श्रेणी चयन के लिए अपने-अपने तर्क देगा। इस तरह बहस खुलेगी और आगे बढ़ेगी।
कुछ ऐसी घटनाएं सामने आ सकती हैं जिन पर विवाद हो कि वे आर्थिक हैं, राजनीतिक हैं या संस्थानिक । ऐसे विवाद वाले मामलों को अलग से बोर्ड पर लिख देना है। उन पर भी चर्चा करनी है।
प्रशिक्षक के लिए यह अनिवार्य नहीं है कि वह हर एक विवादित प्रविष्टि का अंतिम जवाब अपनी ओर से बतावे। ज्यादा जरूरी यह है कि समूह एक-दूसरे के तर्कों का सम्मान करते हुए परस्पर समझदारी से मामले को हल कर लें या अपने-अपने चयन के साथ ही कायम रहें। ऐसे मामलों में इतिहास तय करता है कि कोई घटना अपने समय में मूलत: आर्थिक थी, संस्थानिक थी या राजनीतिक। जरूरी नहीं है कि हर घटना का मूल चरित्र उसी वक्त स्पष्ट हो जाए। इतिहास के परिणामों में झांकने से ज्यादा समझ में आता है कि कौन सी घटना का असल चरित्र क्या था।
इसलिए विवादित घटनाओं पर चर्चा को विराम देने के लिए आज की तारीख में घटनाओं के दीर्घ परिणाम को जांचें और फिर उन पर अंतिम फैसला लें।
प्रशिक्षक डीब्रीफिंग
आर्थिक मंदी के बाद दुनिया की शक्ल बुनियादी रूप से बदल गई। भारत में भी सत्ता परिवर्तन हुआ लेकिन यह सामान्य नहीं था।
पिछले चार दशक में राजनीतिक दलों द्वारा रूढ़ धार्मिक तत्वों को वोट के लिए साधने से चूंकि समकालीन राजनीति की शक्ल बनी है, इसलिए समकालीन राजनीतिक विमर्श भी इसी हिसाब से बंट चुका है। यह प्रक्रिया 2014 में अपनी स्वाभाविक परिणति पर पहुंची, जब समावेशी राष्ट्रवाद की परंपरा महज एक चुनाव से एक झटके में खत्म हो गई। सत्ता में भारी बहुमत से आई भारतीय जनता पार्टी ने खुलकर धार्मिक राष्ट्रवाद को राज्य की विचारधारा बना दिया। 1998 के बाद दो बार अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार धार्मिक राष्ट्रवाद को इसलिए लागू नहीं कर पाई थी क्योंकि भाजपा को स्पष्ट बहुमत नहीं था। उस समय कुछ साल के लिए ही सही, राज्य की आधिकारिक विचारधारा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद रही, जिसे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ अपनी विचारधारा बतलाता है। 2014 में जाकर आम लोगों और मतदाताओं के समक्ष यह स्पष्ट हुआ कि आरएसएस का ‘सांस्कृतिक’ दरअसल ‘धार्मिक’ का आवरण है। इस समझदारी ने आरएसएस और मोदी की स्वीकार्यता को बढ़ाने का काम किया।
यही वह मौका था जब भारत के नागरिक समाज को अमेरिका जैसे प्रेसिडेंशियल चुनाव भारत में आने को लेकर चिंता सताने लगी थी। 2014 के लोकसभा चुनाव की बिसात को जिस भव्य पैमाने पर नरेंद्र मोदी के व्यक्तित्व के इर्द-गिर्द सजाया गया, वह समुदाय आधारित समावेशी राष्ट्रवाद से शायद दूसरा विक्षेप था। पहला विक्षेप इंदिरा गांधी की वापसी में 1980 में दिखा था, लेकिन तब सत्ताधारी पार्टी और विचारधारा वही थी जो आजादी के बाद से चली आ रही थी इसलिए राष्ट्र-राज्य की विचारधारा के संदर्भ में फर्क महसूस नहीं हुआ था। अबकी यह अहसास प्रबल था।
समावेशी राष्ट्रवाद से धार्मिक राष्ट्रवाद में विक्षेप ही भारतीय राष्ट्र-राज्य की दूसरी और सबसे अहम विडंबना है, जहां से असामान्यताएं सामान्य होना शुरू हो जाती हैं और सामान्यताओं को असामान्य करार देने पर आम सहमति का निर्माण शुरू होता है। अगले सत्र में वर्तमान स्थितियों पर विचार करेंगे।