सत्र संचालन
पिछले सत्र में आजादी से इमरजेंसी तक के कालखंड के प्रमुख बिंदु दुहराने के बाद प्रशिक्षक प्रतिभागियों को गतिविधि के लिए 1981 से 2009 यानी करीब तीन दशक की ऐतिहासिक झलकियों की एक सूची देगा (‘सत्र 14 की गतिविधि’ देखें)।
गतिविधि 1
इस गतिविधि के लिए प्रतिभागियों के तीन बड़े समूह बनाने हैं या फिर उन्हीं पुराने समूहों में अभ्यास कार्य दे देना है। प्रत्येक समूह को दी गई सूची के घटनाक्रम को तीन श्रेणियों में विभाजित करना है-
- राजनीतिक घटनाक्रम
- आर्थिक घटनाक्रम
- संस्थानिक घटनाक्रम
एक चार्ट पेपर पर हर समूह को तीन खाने बनाकर घटनाओं को तीन श्रेणियों में दर्ज करना है। इस अभ्यास के लिए एक घंटे का समय दिया जा सकता है।
समय पूरा होने के बाद हर समूह को अपनी प्रस्तुति देनी है और चार्ट पेपर को बोर्ड पर सबके अवलोकन के लिए टांग देना है।
प्रशिक्षक ध्यान दें
प्रशिक्षक को तीनों चार्ट पेपर में समान परिणामों और भिन्न परिणामों को अलग-अलग रंग के मार्कर से चिह्नित करना है। फिर बोर्ड पर उन घटनाओं को दर्ज कर देना है जिनके बारे में समूहों की राय अलग है।
एक-एक कर के उन घटनाओं पर समूहों के बीच चर्चा करवानी है कि क्या सोच कर उन्होंने उक्त घटना को उक्त श्रेणी में डाला। प्रत्येक समूह, श्रेणी चयन के लिए अपने-अपने तर्क देगा। इस तरह बहस खुलेगी और आगे बढ़ेगी।
कुछ ऐसी घटनाएं सामने आ सकती हैं जिन पर विवाद हो कि वे आर्थिक हैं, राजनीतिक हैं या संस्थानिक । ऐसे विवाद वाले मामलों को अलग से बोर्ड पर लिख देना है। उन पर भी चर्चा करनी है।
प्रशिक्षक के लिए यह अनिवार्य नहीं है कि वह हर एक विवादित प्रविष्टि का अंतिम जवाब अपनी ओर से बतावे। ज्यादा जरूरी यह है कि समूह एक-दूसरे के तर्कों का सम्मान करते हुए परस्पर समझदारी से मामले को हल कर लें या अपने-अपने चयन के साथ ही कायम रहें। ऐसे मामलों में इतिहास तय करता है कि कोई घटना अपने समय में मूलत: आर्थिक थी, संस्थानिक थी या राजनीतिक। जरूरी नहीं है कि हर घटना का मूल चरित्र उसी वक्त स्पष्टत हो जाए। इतिहास के परिणामों में झांकने से ज्यादा समझ में आता है कि कौन सी घटना का असल चरित्र क्या था।
इसलिए विवादित घटनाओं पर चर्चा को विराम देने के लिए आज की तारीख में घटनाओं के दीर्घ परिणाम को जांचें और फिर उन पर अंतिम फैसला लें।
प्रशिक्षक डीब्रीफिंग
1981 से 2009 के बीच की कुछ प्रमुख घटनाओं पर चर्चा को विस्तार दिया जा सकता है और इस दौर की मुख्य प्रवृत्तियों को गिनवाते हुए समेटा जा सकता है-
- मीनाक्षीपुरम का धर्म परिवर्तन और राम मंदिर आंदोलन
- खालिस्तान आंदोलन, सिख-विरोधी दंगे और इंदिरा गांधी की हत्या
- बाबरी विध्वंस
- उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण
- शाह बानो केस
- मंडल-कमंडल की राजनीति और भाजपा का राजनीतिक उभार
- इंटरनेट/समाचार चैनलों का आना
- भारत-अमेरिका परमाणु सहयोग
- वैश्विक आर्थिक मंदी
चूंकि ये तीन दशक राजनीति में धर्म और पहचानों के प्रमुख हो जाने और अर्थव्यवस्था के वैश्विक हो जाने का दौर रहे, इसलिए आर्थिक और सांप्रदायिक कारकों को साथ लेकर चलना होगा ताकि यह समझाया जा सके कि उदारीकरण और बाबरी विध्वंस के साथ मंडल की राजनीति के संयोग के निहितार्थ क्या हैं।
जब अर्थव्यवस्था को खोले जाने के लिए मनमोहन सिंह और नरसिंहा राव दलीलें दे रहे थे, उस दौर की संसद की बहसों को देखिए। हम पाते हैं कि उदारवाद का विरोध कम्युनिस्ट पार्टियां और भाजपा समान रूप से कर रहे थे। दोनों के विरोध के पीछे तर्क पद्धति अलग-अलग भले रही हो, लेकिन अर्थव्यवस्था को खोले जाने के कांग्रेसी फैसले के खिलाफ बाकी सभी थे। ठीक इन्हीं बहसों के बीच बाबरी का ध्वंस हुआ और कम्युनिस्टों के सामने सांप्रदायिकता की नई चुनौती आ खड़ी हुई। भाजपा अब भी उदारवाद के खिलाफ लड़ रही थी, लेकिन वामपंथी दलों को अब चुनना था कि उदारवाद प्राथमिक शत्रु है या हिंदू सांप्रदायिकता। यह कैच-22 वाली स्थिति थी और उस वक्त तक इस देश के वामपंथ में यह समझदारी विकसित नहीं हुई थी कि साम्राज्यवादी पूंजी को कट्टर धार्मिकता से कोई परहेज नहीं होता, बल्कि वह धार्मिकता को बढ़ावा ही देती है। इस बिलकुल नई परिस्थिति से निपटने के लिए वामपंथियों ने सांप्रदायिकता को अपना प्राथमिक शत्रु माना और उसे रोकने के लिए उदारवाद के विरोध को मौन तिलांजलि दे दी ताकि कांग्रेस सत्ता में बनी रहे, भाजपा न आने पाए। उन्हें नहीं पता था कि ढाई दशक बाद यही विदेशी पूंजी कांग्रेस का सफ़ाया कर के भाजपा को सत्ता में ले आएगी।
हिंदू सांप्रदायिकता को प्राथमिक शत्रु मानने में दिक्कत नहीं थी। उसका विकल्पं इस देश में कांग्रेस और वाम नहीं दे पाया। विकल्प के तौर पर गंगा-जमुनी की रट लगायी जाती रही जबकि बाबरी विध्वंस के महज छह साल बाद 1998 में पहली बार सत्ता में आई एनडीए ने सबसे पहला हमला इसी संस्कृति पर बोला और पाठ्यक्रमों से लेकर लोकतांत्रिक संस्थाओं तक में अपना धार्मिक एजेंडा लागू करना शुरू कर दिया। इस एजेंडे को लागू करने में उसे खास दिक्कत भी नहीं हुई क्योंकि घर-घर में राम को पहुंचाने का काम दूरदर्शन के माध्यम से कांग्रेस ने ही तो सबसे पहले किया था। यह नहीं भूला जाना चाहिए कि जिस गाय को लेकर 2014 के बाद पूरा देश जला है, वह कभी अपने बछड़े के साथ नेहरू के दौर में कांग्रेस पार्टी का चुनाव चिह्न हुआ करती थी।
कहने का आशय यह है कि इस देश में हिंदुओं की पार्टी तो शुरू से कांग्रेस ही थी, लेकिन उसने हिंदू धर्म यानी सनातन धर्म के मूल्यों से कोई छेड़छाड़ नहीं की जबकि भाजपा ने अपने मातृ संगठन आरएसएस के एजेंडे पर चलते हुए हिंदू धर्म को अपनी राजनीति का खूंटा बना लिया और अभय मुद्रा वाले राम-हनुमान तथा औघड़ मुद्रा वाले शिव को आक्रामक दंडदाताओं में तब्दील कर डाला। कांग्रेस के पास इसकी कोई काट नहीं थी। वाम ने तो कभी माना ही नहीं कि धर्म की राजनीति को वर्ग-संघर्ष के अलावा किसी और चीज़ से टक्कर दी जा सकती है। बाकी समाजवादी, लोहियावादी और दूसरे अन्य किस्मो के सामाजिक न्यायवादी सत्ता में हिस्सेदारी की राजनीति तक सिमट कर अपनी विश्वसनीयता गंवा बैठे।
2009 की आर्थिक मंदी ने कांग्रेस की सहमति आधारित शासन पद्धति को अप्रासंगिक बना डाला। अब दुनिया के नियंताओं को पूंजीवाद बचाने के लिए झटपट आक्रामक फैसले लेने वाले प्रबंधक चाहिए थे। तीन दशक में भाजपा और संघ खुद को कांग्रेस के विकल्प के तौर पर स्थापित कर चुके थे। बस उसके ताबूत में आखिरी कील ठोकी जानी बाकी थी। दुनिया के पूंजीवादी नियंता भाजपा और आरएसएस का स्वागत करने को तैयार बैठे थे।
आगे की कहानी राष्ट्र-निर्माण की भारतीय राज्य की मूल विचारधारा में अचानक आए विक्षेप की कहानी है।