सत्र संचालन
हमने अपने अनुभवों और अवकाश कार्य से यह जाना कि संवधिान में वर्णित मूल्य हमारे लिए आदर्श हैं जो ज्यादातर रोजमर्रा के जीवन में सहज देखने को नहीं मिलते। इसीलिए संविधान बनाने वालों ने इन मूल्यों को प्राप्त करने का आदर्श रखा था। सवाल उठता है कि यदि ये मूल्य हमारे भीतर ही हैं और हमारे अपने अनुभवों व अनुभूतियों से ही सृजित होते हैं, तो ये समाज में क्यों नहीं दिखते?
इसके लिए यह समझना जरूरी है कि समाज को चलाने वाली ताकतें कौन सी हैं। केवल व्यक्ति या व्यक्तियों का समूह ही समाज को संचालित नहीं करता है। हर समाज की अपनी एक ऐतिहासिक बुनावट होती है। उस ऐतिहासिक बुनावट के हिसाब से समाज का मनोविज्ञान काम करता है। हर समाज को समझना तो इतना आसान नहीं है, लेकिन हम भारतीय समाज पर खुद को केंद्रित कर के कम से कम अपने समाज की बेहतर समझ जरूर कायम कर सकते हैं। हमारे अगले छह सत्र इसी को समर्पित होंगे।
भारतीय समाज की खासियत यह है कि यह समाज समूह/समुदाय आधारित समाज रहा है। इसलिए यह सामाजिक मूल्यों को प्राथमिक मानता है। यहां व्यक्तिगत कुछ भी नहीं रहा है।
इसे ऐसे भी समझ सकते है- जिस तरह समूह से सामूहिक/सामाजिक मूल्य पैदा होते हैं वैसे ही सामूहिक मूल्यों से राष्ट्रीय आंदोलन (1905 से 1947) पैदा हुआ जिसने संवैधानिक मूल्यों की पुष्टि की और सार्वभौमिक मूल्यों को संविधान की प्रस्तावना में जगह दिलवा दी।
आजादी की लड़ाई के बाद राष्ट्र निर्माताओं ने आजादी की लड़ाई की सभी अच्छाइयों को एक जगह स्थापित किया। समाज में अच्छे मूल्य स्थापित करने की जो लड़ाई चली, वही संविधान के तौर पर हमारे सामने है, लेकिन इन मूल्यों को टिकाए रखने के लिए संविधान और मूल्यों पर काम करना पड़ता है। यदि काम नहीं करेंगे तो मूल्य टूट जाते हैं, समूह बिखर जाते हैं, संविधान नाकाम हो जाता है और राष्ट्र विफल हो जाते हैं।
सार्वभौमिक मूल्यों के संवैधानिक मूल्य बनने की यात्रा को समझने के लिए हम एक छोटा सा अभ्यास करेंगे, जिसके माध्यम से हम यह समझने की कोशिश करेंगे कि समूह कैसे और क्यों बनते हैं, उऩ्हें एक मंजिल तक कैसे पंहुचाया जाता है और इनसे सबक कैसे लिया जाता है।
गतिविधि 1
प्रशिक्षक सभी प्रतिभागियों को प्रेमचंद की लिखी कहानी ‘ठाकुर का कुआं’ बांटेगा (सत्र 10, गतिविधि 1 देखें)।
दी गई कहानी को पढ़कर निम्न बिंदु छांटिए-
- सामाजिक बुराइयां।
- संवैधानिक मूल्यों की पहचान (चाहे जिस भी रूप में वे आ रहे हों, पुष्टि या हनन दोनों के स्तर पर)।
प्रशिक्षक ध्यान दें
प्रशिक्षक इस अभ्यास कार्य के लिए प्रतिभागियों को छोटे समूहों में बांटेगा (पांच से आठ के बीच)। प्रशिक्षक यह स्पष्ट करेगा कि यह कहानी 1932 में छपी थी, इसलिए इस कहानी को उसी दौर के संदर्भ में पढ़ा जाना चाहिए। इस अभ्यास कार्य के लिए एक घंटे का समय निर्धारित किया जा सकता है।
नियत समय के बाद समूहों की प्रस्तुति होगी। उसमें जो बिंदु निकल कर आएंगे, उन्हें प्रशिक्षक बोर्ड पर लिखेगा।
उदाहरण के लिए, कुछ ऐसे बिंदु निकल कर आ सकते हैं-
- जातिवाद
- गरिमापूर्ण जीवन का अभाव
- सामाजिक-धार्मिक अन्याय
- लैंगिक शोषण
- सामंतवाद
- बेगारी
- शैक्षणिक असमानता
- संसाधनों का असमान बंटवारा
प्रशिक्षक ये बिंदु प्रतिभागियों को नोट करने को कहेगा क्योंकि इन बिंदुओं की जरूरत अगले अभ्यास में पड़ने वाली है।
गतिविधि 2
प्रशिक्षक 1905-1947 के बीच के इतिहास की कुछ झलकियों की एक सूची प्रतिभागी समूहों में बांटेगा (सत्र 10 गतिविधि 2 देखें)। पिछले अभ्यास में कहानी में पहचाने गए तत्वों के अनुकूल इस घटनाक्रम सूची में से वे घटनाएं छांटनी होंगी, जो सामाजिक बदलाव की प्रक्रिया को दर्शाती हैं।
इस अभ्यास के लिए पौन घंटे का समय दिया जाएगा, हालांकि कहानी के हिसाब से घटनाओं पर चर्चा करने और घटनाक्रम को छांटने की पूरी प्रक्रिया में उससे ज्यादा समय लग सकता है। प्रशिक्षक प्रतिभागियों को इस गतिविधि का महत्व समझाते हुए कहेगा कि अगले सत्र से शुरू कर के पांच कालखंडों में एक के बाद एक चूंकि यही काम करना है, इसलिए प्रक्रिया को समझने के लिए यह अभ्यास बहुत आवश्यक है। इस अभ्यास के आरंभ में प्रतिभागियों को भ्रम होगा, इसलिए प्रशिक्षक को लगातार उनका सहयोग करना होगा।
नियत समय के बाद समूहों की प्रस्तुति होगी। उसके बिंदु समूहवार प्रशिक्षक नोट करेगा।
उदाहरण के लिए, एक ऐसा खाका बनकर आ सकता है-
कहानी के तत्व | समकालीन ऐतिहासिक घटनाएं |
छुआछूत | 1932 हरिजन संघ की स्थापनाए 1917 नायकर का जाति विरोधी आंदोलन |
महिला शोषण/यौन हिंसा | 1927 विमेन कांग्रेस |
भ्रष्टाचार | 1934 जमीदारों को खुश करने की कोशिश |
बेगारी | 1922 मजदूरों की हड़ताल, 1925 मजदूर-किसान पार्टी की स्थापना |
जातिगत और सामाजिक उत्पीड़न | 1914 का भील विद्रोह |
गुलामी | 1919 का रोलेट एक्ट |
प्रशिक्षक को यह बताना होगा कि इस अभ्यास के माध्यम से हम एक ही कालखंड में रचे जा रहे साहित्य और समाज में हो रहे बदलाव की सुसंगतता को स्थापित कर रहे हैं। इससे यह समझ में आता है कि समाज में व्यापक स्तर पर जिन मूल्यों के लिए लड़ाई चलती है, व्यक्ति (रचनाकार, कलाकार, समाजकर्मी) की चेतना भी उन्हीं मूल्यों के इर्द-गिर्द सोचती और रचती है।
प्रशिक्षक डीब्रीफिंग
प्रतिभागियों ने जिन घटनाओं को छांट कर निकाला है, अगर ध्यान से देखें तो ये घटनाएं तीन तरह की हैं- या तो वे प्राथमिक रूप से राजनीतिक घटनाएं हैं, जैसे सामाजिक-राजनीतिक प्रश्न पर आंदोलन, विद्रोह, आदि; या फिर वे मूलत: आर्थिक परिघटनाएं हैं, जैसे जमींदारों के हित की नीतियां, मजदूरों-किसानों का एकजुट होना, हड़ताल करना; या फिर संस्थानिक घटनाएं हैं, जैसे मजदूर-किसान पार्टी का बनना, विमेन कांग्रेस का बनना, हरिजन संघ की स्थापना, और रोलेट एक्ट का आना, जो दरअसल कानून अनुपालक संस्था के विकास से जुड़ी बात है।
हमारे समाज में मौजूद प्रवृत्तियों, अन्यायों, असमानताओं, अप्रिय चीजों की जन प्रतिक्रिया में या फिर राज करने वालों की ओर से समाज पर नियंत्रण के लिए जो अहम घटनाक्रम होते हैं, वे इन्हीं तीन श्रेणियों में बांटे जा सकते हैं- राजनीतिक घटनाएं, आर्थिक घटनाएं और संस्थानिक घटनाएं। वैसे, सांस्कृतिक घटनाएं भी होती हैं, लेकिन उनकी पहचान उतनी स्पष्ट नहीं होती। जैसे, प्रगतिशील लेखक संघ और इप्टा का गठन सांस्कृतिक घटना मानी जा सकती है, लेकिन दरअसल ये संस्थानिक की श्रेणी में आएंगी क्योंकि यहां लोकतांत्रिक संस्था का गठन हो रहा है जिसका कार्यभार सांस्कृतिक है।
हर दौर में समाज के मूल्य ऐसी ही घटनाओं के दबाव में बनते-बिगड़ते हैं। यानी, समाज और व्यक्ति के मूल्यों को राजनीति, आर्थिक और संस्थागत प्रक्रियाएं मिलकर तय करती हैं। यदि हमें अपने समय की इन तीनों प्रक्रियाओं की साफ-साफ पहचान हो, तो हमें अपने दौर के मूल्यों की पहचान स्पष्ट हो सकेगी। फिर हम ये भी जान पाएंगे कि मूल्यों में व्यापक बदलाव के लिए राजनीतिक, आर्थिक और संस्थाओं के मोर्चे पर क्या-क्या किया जाना चाहिए।
आगामी पांच सत्रों में हम अलग-अलग कालखंड के ऐतिहासिक घटनाक्रम को इन्हीं तीन आयामों में बांट कर देखेंगे और हर दौर में होने वाले राजनीतिक, आर्थिक और संस्थानिक बदलावों के दबाव में मूल्यों के बनने-बिगड़ने को पहचानने की कोशिश करेंगे।