सत्र संचालन
नए चरण में प्रशिक्षक सभी प्रतिभागियों का स्वागत करते हुए कार्यशाला की औपचारिक शुरुआत करेगा। सत्र की शुरुआत से पहले प्रशिक्षक प्रतिभागियों को कार्यशाला संबंधित व्यवस्थाओं, जैसे खाने का समय, परिसर के नियम तथा सत्रों के समय की जानकारी देगा।
पिछले चरण के अंतिम सत्र में व्यवस्था पर आए फीडबैक के आधार पर जरूरत के अनुसार सभी प्रतिभागियों की सहमति से व्यवस्थापक समूह बनाए जाएंगे। ये समूह कुछ ऐसे हो सकते हैं-
- सत्रों की कार्रवाइयों के दैनिक मिनट्स लेने के लिए दो प्रतिभागियों का समूह। यह समूह रोजाना सत्र के अंत में दिन भर की कार्रवाई को चार्ट पेपर पर बिंदुवार लिखकर प्रशिक्षण सभागार में लगा देगा ताकि अगली सुबह सभी प्रतिभागी उसे देख सकें।
- दूसरा समूह दो प्रतिभागियों का समय पालन के लिए बनाया जा सकता है। इनकी जिम्मेदारी खाने, नाश्ते और सत्रारम्भ पर सभी प्रतिभगियों को आगाह करने की होगी ताकि सत्रों में विलम्ब न होने पाए।
- जरूरत के हिसाब से प्रतिभागियों के और समूह बनाकर उन्हें जिम्मेदारियां दी जा सकती हैं।
इसके बाद प्रशिक्षक प्रतिभागी समूह से बीते हुए समय में उनके अनुभवों और काम पर अनौपचारिक चर्चा करते हुए पिछले चरण के सीखे बिंदुओं के आलोक में चर्चा को आकार देगा। फिर उन प्रतिभागियों को लिखित अवकाश कार्य तैयार करने और बाकी को उसे पढ़कर संशोधित-परिवर्द्धित करने की मोहलत देगा, ताकि औपचारिक प्रस्तुति शुरू की जा सके। इसके लिए आधे से पौन घंटे का समय दिया जा सकता है।
गतिविधि 1
जब सभी प्रतिभागी संतोषजनक ढंग से अपने अवकाश कार्य को लिखित रूप में तैयार कर चुके हों, तब एक-एक कर के उनसे उसे सबके समक्ष प्रस्तुत करने को कहा जाएगा।
प्रशिक्षक ध्यान दें
इस प्रस्तुति के दौरान प्रशिक्षक को अपने विवेक से हर एक प्रस्तुति से निकले महत्वपूर्ण बिंदुओं को सबके सामने बोर्ड पर दर्ज करते जाना होगा। ऐसा दो श्रेणियां बनाकर किया जा सकता है। समाज में संवैधानिक मूल्यों के काम करने की-
- अनुकूल परिस्थितियां
- प्रतिकूल परिस्थितियां
इन दो परिस्थितियों को बिंदुवार एकत्रित करने के बाद इस विषय पर समूह चर्चा करवाई जा सकती है।
हमारा मुख्य उद्देश्य इस गतिविधि और चर्चा को करने का यह है कि मूल्यों के काम करने की प्रतिकूल परिस्थितियों को समाज की ऐतिहासिक बनावट की रोशनी में समझा जा सके। इसलिए प्रशिक्षक को अपनी डीब्रीफिंग में संवैधानिक मूल्यों के बनने बिगड़ने की ऐतिहासिकता पर बात को ले जाना होगा ताकि अगले सत्रों की जमीन तैयार हो सके।
उदाहरण के लिए, कोई प्रतिभागी सहज ही अपना अनुभव सुना सकता है कि जब हम मूल्य की बात करने जाते हैं तो समाज में लोग पूछते हैं कि इसमें उनका क्या फायदा है। घर परिवार में भी लोग फायदे की बात करते हैं। लोग हर चीज में फायदा देखते हैं। अच्छाई में, मूल्यों में उन्हें अपना फायदा नहीं दिखता। यानी, समाज के मानस में बसा फायदे का सवाल मूल्यों के लिए प्रतिकूल हालात पैदा करता है।
इस तरह के उदाहरण को हमें उसकी ऐतिहासिकता तक ले जाने और समझाने की जरूरत है। मसलन, फायदे वाला मानस आता कहां से है। क्या समाज में लोग हमेशा से हर काम फायदे को देख कर करते रहे हैं? यह सवल पूछा जा सकता है। इस पर जवाब लिए जा सकते हैं। हो सकता है कुछ लोग धार्मिक कामों का उदाहरण दें, जैसे सड़क पर प्याऊ लगवाना धर्मार्थ काम था जिसमें लोग फायदा नहीं देखते थे। इस पर प्रतिवाद भी आ सकता है कि लोग अपना स्वर्ग सुधारने के लिए ऐसे धर्मार्थ काम करते थे। फिर बात धर्म के भीतर लोभ और भय के रिश्ते तक जा सकती है, कि ऐसे करो तो स्वर्ग मिलेगा और नहीं करोगे तो नर्क। संगठित धर्म के भीतर लोभ और भय का यह रिश्ता फायदे पर ही केंद्रित था। इसी तरह, समूचा पूंजीवाद फायदे की प्रणाली है। फायदा नहीं होगा तो कोई व्यापार क्यों करेगा। यानी संगठित धर्म और पूंजी दोनों के केंद्र में फायदा है। इन्हीं दोनों ने पिछले दो सौ साल में समाज को गढ़ने का काम किया है। इसीलिए आम आदमी का दिमाग फायदे से चलता है।
जब तक हम अपने समाज का इतिहास नहीं समझेंगे, तब तक आदमी के दिमाग की बनावट और उसकी चिंतन प्रक्रिया को भी नहीं समझ पाएंगे। इसीलिए वर्तमान में हस्तक्षेप करने के लिए समाज के इतिहास को जानना जरूरी है।
प्रशिक्षक डीब्रीफिंग
प्रशिक्षक चर्चाओं के आधार पर बिंदुवार समीक्षा करते हुए आगामी सत्रों के महत्व को बताएगा। जैसा कि नाम से स्पष्ट है, आगामी सत्र प्रतिभागियों में इतिहासबोध को विकसित करने पर केंद्रित हैं। चूंकि सभी प्रतिभागी अलग-अलग उम्र के हैं और सभी का इतिहासबोध भी उसी के हिसाब से अलग-अलग है, तो सबको एक सम पर लाने के लिए इतिहास में जाना बहुत आवश्यक है ताकि समूह में वस्तुगत ज्ञान के बीच कोई फांक न रह जाए, कोई गैर-बराबरी न रह जाए।
जैसा कि हमने अब तक जाना है, स्वतंत्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व के चारों संवैधानिक मूल्यों की एक प्राचीनता और ऐतिहासिकता है। यही चारों सार्वभौमिक मानवीय मूल्य भी हैं। यही शिक्षा हमें सारे धर्म दर्शन भी देते हैं। यही एक आदर्श समाज बनाने के मूल्य भी हैं। पांच हजार साल की यात्रा है इन मूल्यों की हमारे समाज में, लेकिन अलग-अलग देशों के आधुनिक राष्ट्र-राज्य बनने के बाद ही ये मूल्य संहिताबद्ध होकर देशों के संविधान का हिस्सा बने।
यानी, सार्वभौमिकता से इन मूल्यों ने राष्ट्रीयता तक की लंबी यात्रा संपन्न की है। यह यात्रा बहुत उथल-पुथल भरी रही है। बीच-बीच में ऐसे अनेक मौके आए हैं इस दुनिया में जब इन मूल्यों को या तो नकार दिया गया या फिर इनके हक में लड़ाइयां हुईं। पूरी दुनिया के इतिहास को देखें, तो दरअसल इन मूल्यों के हक में या विरोध में होने वाली जंग में इस दुनिया को समेटा जा सकता है। इसलिए हमें अतीत को समझना जरूरी है कि कैसे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक घटनाएं मूल्यों को बनाती-बिगाड़ती हैं। मूल्यों के बनने-बिगड़ने की यह ऐतिहासिक प्रक्रिया व्यक्तिगत नहीं, सामूहिक होती है। अलग-अलग घटनाओं से लोग साथ आते हैं, समूह बनाते हैं या समूह बिखर जाते हैं। यह दोनों ढंग से काम करता है।
समाज में मौजूद परिस्थितियां लोगों के एकीकरण में सहायक होती हैं। परिस्थितियां और कारण लोगों को जब एक साथ लाते हैं, तो लोग अपनी-अपनी परिस्थितियों से निकलने के लिए अलग-अलग तरह की कार्रवाइयां करते हैं। ऐसी सकारात्मक सामूहिक कार्रवाइयों से आंदोलन जन्म लेते हैं। जैसे हमारी आजादी का आंदोलन, जिसने अंतत: अपना लक्ष्य प्राप्त किया। आजादी के आंदोलन में लोग जिन मूल्यों के चलते साथ आए और इस आंदोलन से जिन मूल्यों की स्थापना समाज में हुई, उन्हीं को भारतीय राज्य के निर्माण के लिए संविधान में महत्ता दी गई। ये मूल्य हमारे राष्ट्रीय आंदोलन के सबक की तरह हैं।
आगामी सत्रों में हम बीते दो सौ वर्षों पर रोशनी डालेंगे और समाज के बनने-बिगड़ने के साथ मूल्यों की विकास-यात्रा को समझने की कोशिश करेंगे। अगले छह सत्र इसी पर केंद्रित हैं और तकरीबन सभी का खाका एक जैसा है, सिवाय कालखंड के। हम अलग-अलग कालखंडों को अलग-अलग सत्रों में देखेंगे और समझेंगे। इसकी शुरुआत हम आजादी के आंदोलन पर एक गतिविधि से करेंगे।