इसका उपयोग करने के लिए प्रशिक्षक से प्रथम अपेक्षा यह है कि वे सभी सत्रों के लिए दी गई पाठ्य सामग्री को पढ़कर, अभ्यासों को खेलकर और फिल्मों को देखकर पहले अपना परिप्रेक्ष्य निर्माण कर लें, उसके बाद ही प्रशिक्षण में जाएं।
कुल मिलाकर प्रशिक्षण के तीन चरण हैं। इन चरणों को प्रशिक्षण-अनुभव के आधार पर प्रतिभागियों के व्यक्तित्व व परिप्रेक्ष्य निर्माण की स्वाभाविक दिशा के हिसाब से संयोजित किया गया है। चूंकि मूल्यों के मूल में जीवन-अनुभव होते हैं, तो पहला चरण प्रतिभागियों के निजी जीवन-अनुभवों से जुड़े कुछ अभ्यासों से शुरुआत करते हुए उन्हें सार्वभौमिक मूल्यों तक ले जाने की कोशिश करता है। इसी क्रम में यह समझदारी विकसित होती है कि सार्वभौमिक मूल्यों का सार ही संवैधानिक मूल्यों के रूप में संविधान की प्रस्तावना में आया है।
चूंकि सार्वभौमिक मूल्यों के संवैधानिक मूल्यों तक चले आने की एक ऐतिहासिकता है, लिहाजा दूसरा चरण इतिहासबोध पर केंद्रित है। यह चरण इस उद्देश्य से बनाया गया है ताकि विभिन्न पेशों और पृष्ठभूमि से आए अलग-अलग उम्र के प्रतिभागियों के बीच ज्ञान के अंतर को पाटा जा सके और सभी को मोटे तौर से जानकारी के एक समान स्तर पर लाया जा सके। एक ओर जहां नई उम्र के प्रतिभागियों के लिए यह चरण शिक्षण का कार्य करेगा, वहीं अधिक उम्र के परिपक्व प्रतिभागियों के लिए यह पीछे मुड़ कर देखने, पढ़ी हुई चीजों को याद करने और अपने परिप्रेक्ष्य को दुरुस्त करने के काम भी आएगा।
दो चरणों के संपन्न होने के बाद जब सभी प्रतिभागी एक समूह के तौर पर समान रूप से उन्नत हो जाएंगे, तो दूसरे चरण के अंत में दिए गए अवकाश कार्य की समीक्षा के माध्यम से अगले चरण में उनका अभिमुखीकरण किया जा सकता है। यह तीसरा और अंतिम चरण अब तक प्रतिभागियों की समझदारी में आए बदलावों के पड़ावों की शिनाख्त करता है। वे जिन पड़ावों से गुजरकर यहां तक पहुंचे हैं, उनकी पहचान और उनका सूत्रीकरण ही इस चरण का उद्देश्य है। यह सूत्रीकरण समूची प्रशिक्षण प्रक्रिया को वस्तुगत अमूर्तीकरण की ओर ले जाएगा, जिसके अंत में कोई प्रतिभागी प्रशिक्षक की भूमिका अपनाने में खुद को सक्षम पाएगा। वह अपने प्रशिक्षण अनुभवों के अमूर्तीकरण के आधार पर उन्हीं अनुभवों से दूसरों को गुजार पाने और प्रशिक्षित कर पाने के काबिल बन पाएंगे और जिन अनुभवों को प्रतिभागी इस प्रक्रिया में प्राप्त कर पाए हैं, उन अनुभवों से अपने समुदाय, संगठन के लोगों या फिर अपनी टीम के सदस्यों को गुजारने के लिए क्या किया जा सकता है, उसकी योजना तैयार कर पाएंगे।
इन तीनों चरणों के परस्पर जुड़ाव और विकासात्मक दिशा की एक गहरी समझ बनाना प्रशिक्षक के लिए अनिवार्य है। प्रशिक्षक को यह समझना होगा कि कोई सत्र कहां और क्यों खत्म हो रहा है तथा अगला सत्र कैसे उसके आधार पर निर्मित हो रहा है। इस प्रक्रिया में प्रतिभागी समूह के विकास का निरंतर मूल्यांकन करते हुए उसे चलना होगा, जिससे यह तय किया जा सके कि एक समूह के बतौर प्रतिभागी अभी किस अवस्था में हैं और उन्हें किन सत्रों की जरूरत है।
मैनुअल में प्रत्येक अभ्यास के साथ ‘सत्र संचालन’ शीर्षक से एक नोट दिया गया है। किसी भी अभ्यास को चलाने से पूर्व यह आवश्यक है कि प्रशिक्षक ‘सत्र संचालन’ पर नजर डाल लें। इस नोट में अभ्यास से संबंधित प्रक्रिया और विषय-वस्तु के बारे में लिखा गया है। इसके अलावा हर सत्र में कैसे शुरुआत करनी है और कैसे समापन, उसके बारे में भी नोट में दिया गया हैं। इनका मूल मंतव्य हर सत्र को आपस में जोड़ना और विषय प्रवाह को बनाए रखना है। प्रशिक्षक को इस बात का ध्यान रखना होगा कि यह प्रवाह टूटे नहीं।
यह कार्यशाला तीन चरणों में आयोजित की जानी है। तीनों चरण सात-सात दिन के हिसाब से बनाए गए हैं। प्रशिक्षक को इस मैनुअल की गतिविधियों में अपनी और प्रतिभागियों की जरूरत के हिसाब से बदलाव करने की छूट है। प्रशिक्षक सभी चरणों के हिसाब से अपनी कार्यशाला की अवधि तय कर सकते हैं।
यह मैनुअल अधिकतम 20 से 40 प्रतिभागियों के लिए उपयुक्त है और इतने के ही अनुभव के आधार पर लिखा गया है।
प्रशिक्षक को अतिरिक्त पाठ्य सामग्री देने और जरूरत के हिसाब से फिल्म प्रदर्शन करने की भी छूट है। यह मैनुअल मोटे तौर पर एक प्रतिभागी की विकास यात्रा के हिसाब से बनाया गया है।