सत्र संचालन
प्रशिक्षक पिछले सत्र के पुनरावलोकन से इस सत्र को आगे बढ़ाएगा। पिछले सत्र में हमने जो सीखा उसे बिंदुवार याद कर लें-
- स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व और न्याय के संवैधानिक मूल्य परस्पर निर्भर हैं। किसी एक का ह्रास सिलसिलेवार सभी के ह्रास का कारण बनता है।
- मूल्यों के ह्रास की परिस्थितियां जरूरी नहीं कि मनुष्य की तय की हुई हों, ये ऐतिहासिक रूप से प्रदत्त भी हो सकती हैं।
- एक लोकतांत्रिक संवैधानिक गणराज्य में संवैधानिक मूल्यों को सुनिश्चित करने की मूल जिम्मेदारी राज्य की होती है, जो संविधान के माध्यम से नागरिकों के प्रति जवाबदेह होता है।
- राज्य के नाकाम हो जाने पर नागरिकों को यह जिम्मेदारी उठानी होती है।
- इसीलिए नागरिकों के बीच और राज्य के साथ नागरिकों का निरंतर संवाद एक मूल्यपरक राष्ट्र बनाने में अनिवार्य भूमिका निभाता है।
गतिविधि 1
उपर्युक्त बिंदुओं पर संक्षिप्त चर्चा के बाद प्रशिक्षक संवाद की जटिलताओं पर चर्चा को बढ़ाने के लिए दो सवाल सदन के समक्ष रखेगा-
- हर व्यक्ति के जीवन को संचालित करने वाले मूल्य उसके निजी अनुभवों से उपजते हैं, ये हमने शुरू में जान लिया था। अगर मूल्य निजी अनुभवों की उपज हैं, तो दो अलग-अलग मूल्यों वाले व्यक्तियों के बीच स्वस्थ संवाद कैसे संभव हो जबकि पहले से ही लोगों के बीच अपनी-अपनी पहचान को लेकर दूरियां कायम हैं? आपके हिसाब से लोगों से संवाद करने में आपको कौन सी अड़चनें आती हैं?
- राज्य को संवैधानिक मूल्यों पर लाने के लिए जरूरी है कि व्यक्ति/नागरिक खुद पहले उन मूल्यों से वाबस्ता हो। तो क्या मूल्यों को आत्मसात किए बगैर राज्य से संवाद संभव नहीं है? या कोई तरीका है? राज्य से संवाद करने, उसके समक्ष अपनी मांग रखने, अपनी बात मनवाने, अपना दृष्टिकोण समझाने के लिए आप किन तरीकों का इस्तेमाल करते हैं?
इन दो सवालों पर छोटे-छोटे समूहों में चर्चा करवा कर जवाबों की प्रस्तुति करवानी है। विचार करने और जवाब देने के लिए पौन घंटे का समय दिया जाना चाहिए।
प्रशिक्षक ध्यान दें
प्रशिक्षक को छोटे समूहों की प्रस्तुतियों से निकले बिंदुओं को नोट करते जाना है और उन सभी बिंदुओं को एक चार्ट पेपर पर या बोर्ड पर सबके सामने लिख देना है। इस बात का खयाल रखना है कि सभी प्रतिक्रियाएं दो श्रेणियों में विभाजित हों- पहली श्रेणी नागरिकों के बीच संवाद पर केंद्रित हो, दूसरी नागरिकों और राज्य के बीच संवाद पर।
पहली श्रेणी में मोटे तौर पर जो बातें निकल कर आएंगी, उन्हें ‘हम’ और ‘वे’ के खांचे में देखा जा सकता है। दूसरी श्रेणी में जो बातें निकल कर आएंगी, उन्हें अधिकारों के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है।
प्रशिक्षक डीब्रीफिंग
प्रशिक्षक को समूह में प्रतिक्रियाओं पर चर्चा करवा के निजी और सार्वजनिक संवाद के दो अवरोधों की पहचान करनी है-
- पहचान का संकट।
- अधिकार-केंद्रित राजनीति / समाजकर्म का संकट।
इन दो बिंदुओं के माध्यम से प्रतिभागियों को यह समझाना है कि एक ओर जहां पहचान हमारे आपसी संवाद में अड़चन बन जाती है, तो दूसरी ओर हमारे अधिकार कभी-कभार एक दूसरे के खिलाफ चले जाते हैं और राज्य से संवाद की प्रक्रिया में अधिकारों की मांग के अलावा आगे बढ़ने का हमें कोई रास्ता नहीं दिखता। यानी संवैधानिक अधिकार अगर हमें दे भी दिए जाते हैं, तो उनका अनुपालन नहीं होता और मामला ढाक के तीन पात ही रह जाता है।
इसके माध्यम से प्रशिक्षक को प्रतिभागियों में पहचान और अधिकार दोनों की सीमाओं की समझदारी पैदा करनी है। यहीं पर संवाद एक ऐसा औजार बनकर उभरता है जिससे परस्पर स्वीकार्यता बनती है और पहचानों के पार जाकर लोगों में समन्वय स्थापित किया जा सकता है तथा राज्य के साथ मूल्य के स्तर पर संलग्नता स्थापित की जा सकती है।
गतिविधि 2
फिल्म प्रदर्शन ‘एक रुका हुआ फैसला’
फिल्म सबको एक साथ देखनी है। फिल्म यूट्यूब पर मौजूद है। फिल्म देखने के लिए इस लिंक पर जायें-
प्रशिक्षक ध्यान दें
यह फिल्म आपकी पहले से देखी हुई होनी चाहिए। फिल्म प्रदर्शन के बाद उस पर पिछली गतिविधि की डीब्रीफिंग के आलोक में सामूहिक चर्चा करवाएं। सामूहिक संवाद की प्रक्रिया में सत्य या न्याय-निर्णय तक पहुंचने में तर्क, सहिष्णुता, असहमतियों के सम्मान, संलग्नता आदि के मूल्यों को केंद्र में रखें और फिल्म से उदाहरण लें।
प्रशिक्षक डीब्रीफिंग
बाबासाहब आंबेडकर का सूत्र था- शिक्षित बनो, संगठित हो, आंदोलित हो। हमारे सामने सबसे पहला सवाल ही अटक जाता है कि कैसे खुद को और दूसरों को शिक्षित करें। चूंकि हम सामाजिक प्राणी हैं और दूसरों के साथ हम अलग-अलग संबंधों में जीते हैं, तो एक-दूसरे को शिक्षित करने का काम हमें करना होता है। यह परस्पर शिक्षण कभी भी अलग-अलग ऊंचाइयों पर खड़े होकर नहीं किया जा सकता। सामाजिक शिक्षण में भी मूल्यों का खयाल रखना होता है। किसी को उपदेश नहीं दिया जा सकता है, ऐसा कर के आप उसे गैर-बराबर महसूस करवा रहे होते हैं।
इसीलिए संवाद की पहली शर्त है बराबरी यानी सामने वाले को हीन न समझना, अपने जैसा समझना। एक बार आप सामने वाले को बराबर समझ के संवाद शुरू करते हैं तो उसके साथ आपकी संलग्नता की जमीन तैयार होती है। निरंतर संवाद और संलग्नता से स्वीकार्यता पैदा होती है। यही स्वीकार्यता आपके संदेशों के लिए स्पेस बनाती है। बिना स्वीकार्यता के कोई किसी की बात न तो सुनता है और न ही मानता है।
यानी, सामाजिक शिक्षण का सूत्र है-
संवाद – संलग्नता – स्वीकार्यता
चूंकि संवाद सबसे प्राथमिक कदम है, तो संवैधानिक मूल्यों के आलोक में संवाद करने की पूरी कोशिश करनी चाहिए। संवाद समतापूर्ण, न्यायपरक, बंधुत्व पैदा करने वाला और एक दूसरे को अपनी बात रखने की आजादी देने वाला होना चाहिए। यानी, संवाद एकतरफा नहीं होना चाहिए, सहभागितापूर्ण होना चाहिए।
चूंकि असहमतियां जायज हैं, तो उनका सम्मान किया जाना चाहिए। टकराव की स्थिति में भी प्रतिक्रिया से बचना चाहिए। कुल मिलाकर, बात करने की एक लोकतांत्रिक और सभ्य तमीज को सीखना मूल्यों की सार्वजनिक स्थापना के वृहत्तर कार्य में सबसे बुनियादी शर्त है।
इस चर्चा को अगले सत्रों में आगे बढ़ाते हुए यह जानने की कोशिश करेंगे कि घर, परिवार, समुदाय, समाज, कार्यस्थल आदि जगहों पर मूल्यों के आड़े कौन सी चीजें रोजमर्रा की जिंदगी में आती हैं, जो हमारे संवाद को प्रभावी नहीं होने देती हैं।