सत्र संचालन
सत्र 1 और 2 के आधार पर प्रशिक्षक अब तक सीखे गए का पुनरावलोकन करेगा। इस पुनरावलोकन के साथ बात को आगे बढ़ाते हुए अनुभव और मूल्यों के बीच में अनुभूति को ले आना है और यह समझाना है कि अनुभव सीधे मूल्यों में नहीं बदल जाते हैं बल्कि यह अनुभूतियों पर निर्भर करता है। इसके बाद भी जो मूल्य बनते हैं, वे अनुभवों और अनुभूतियों के हिसाब से बनते-बिगड़ते रहते हैं। इस तरह, अनुभव, अनुभूति और मूल्य के बीच एक परिवर्तनीय चक्र होता है।
अभी तक हमने पिछले दो सत्रों में जो बातें समझी हैं उन्हें क्रम से एक-एक कर के दुहराएंगे। सबसे पहले हमने अपने प्रारंभिक जीवन से जुड़े कुछ सवालों के जवाब दिए और अपनी बचपन की पसंद-नापसंद की पहचान की। फिर यही काम हमने अपने किशोरावस्था और युवा जीवनखंड के लिए किया। हमारे जो जवाब रहे उनका हमने मूल्यांकन और विश्लेषण किया। इससे कुछ बातें समझ में आईं जिन्हें बिंदुओं में याद करना जरूरी है।
इन बिंदुओं को प्रशिक्षक बोर्ड पर लिखेगा-
- हमारी पसंद या नापसंद स्वाभाविक तौर पर हमारे अनुभवों और उनसे होने वाली अनुभूतियों से तय होती है। जिस व्यक्ति/घटना के साथ अनुभूति सुखद/दुखद हो उसे हम अच्छा/बुरा व्यक्ति/प्रसंग मानते हैं।
- अपनी पसंद और नापसंद के संदर्भ में हमारी तात्कालिक निजी अनुभूतियां ही अनुभव और सबक का काम करती हैं।
- जब हम इन निजी अनुभूतियों को दूसरों से साझा करते हैं और दूसरों की अनुभूतियों से अपने साथ कुछ समानता पाते हैं। इस मोड़ पर पता लगता है कि हमारी अनुभूति मौलिक नहीं थी बल्कि वह एक सार्वभौमिक अनुभूति का हिस्सा है। यानी जो हमें बुरा लगता है वही दूसरों को भी बुरा लगता है और जो हमें अच्छा लगता है वही दूसरों को भी अच्छा लगता है। ज्यादातर मामलों में सहज अनुभूतियों में हमारे बीच समानता पाई गई है, जैसा कि हमने दो दिनों के अभ्यास में देखा।
- ये जो तात्कालिक अनुभूति है, वही दीर्घकालिक अनुभव है। इसी अनुभव से हम धारणाएं बनाते हैं कि कैसा व्यवहार मनुष्यसंगत/समाजसंगत होना चाहिए और कैसा नहीं।
- जब समाज के संचालन के लिए संहिताएं तैयार की जाती हैं तो इन्हीं सामूहिक अनुभवों को लिखित मूल्यों के रूप में प्रतिपादित किया जाता है।
- जब राष्ट्र-राज्य के संचालन के लिए संहिताएं बनाई जाती हैं तो हमारे सामाजिक मूल्य ही संवैधानिक मूल्यों की शक्ल ले लेते हैं।
हम पाते हैं कि संवैधानिक मूल्य भले अनुभूतियों के विकासक्रम में सबसे बाद में गढ़े जाते हों, लेकिन हर अनुभूति के मूल में एक मूल्य छुपा होता है। जरूरी नहीं कि हम उस मूल्य को तत्काल पकड़ पाएं। अकसर हम अनुभूति को वहीं छोड़ कर आगे बढ़ जाते हैं। कुछ लोग सहज अनुभूतियों को अपने ठोस आनुभविक प्रशिक्षण के काम में लाते हैं और जीवन जीने का ढर्रा तय करते हैं। कुछ और लोग जो ज्यादा सजग होते हैं, अनुभूति से मूल्य तक की यात्रा कर पाते हैं।
सवाल उठता है कि क्या अनुभूति से मूल्यों तक पहुंचना जरूरी है? अगर हां, तो क्यों?
यदि हर मनुष्य अपनी-अपनी अनुभूति और अनुभव के हिसाब से व्यवहार करने लग जाए और उसके हिसाब से जीवन जीने की अपनी संहिता बना ले, तो समाज या राष्ट्र-राज्य कैसे चल पाएगा?
प्रशिक्षक इन दो सवालों पर समूह चर्चा करवाएगा।
चर्चा का उद्देश्य इन सवालों के विभिन्न आयामों को खंगालना होगा ताकि विषय को थोड़ा और विस्तार मिले।
लगभग घंटे भर की चर्चा के बाद विषय को थेाड़ा और खोलने के लिए एक गतिविधि के तौर पर एक फिल्म का प्रदर्शन किया जाएगा।
गतिविधि 1
फिल्म प्रदर्शन ‘आंखों देखी’
फिल्म सबको एक साथ देखनी है। फिल्म यूट्यूब पर मौजूद है। फिल्म देखने के लिए इस लिंक पर जायें-
गतिविधि 2
प्रतिभागियों के छोटे समूह बनाकर फिल्म पर उन समूहों में चर्चा करवाएं। सत्र की शुरुआत में उठाए गए सवालों के संदर्भ में फिल्म के ऊपर हर समूह को अपनी प्रस्तुति देनी है।
प्रस्तुतियों के बाद खुली चर्चा होगी। प्रशिक्षक उन चर्चाओं से निकले बिंदुओं को बोर्ड पर डीब्रीफिंग के लिए नोट करेगा।
उदाहरण के लिए, कुछ ऐसे बिंदु निकल कर आ सकते हैं-
- यह फिल्म अनुभवों के महत्त्व को स्थापित करती है। जो व्यक्ति अपने जीवन के अनुभव से नहीं सीखता है, उसका अंत तय है।
- यह फिल्म कई गंभीर सवाल उठती है। जब हम सत्य/सही बोलते हैं तो जीवन में कई मुसीबतें आनी शुरू हो जाती हैं। फिल्म का नायक सही बात बोलने लगता है और उसका परिवार अलग हो जाता है। परिवार अलग होने के बाद भी खुश नहीं रह पता है। इस से समझ आया कि परिवार के लोग अलग हो कर कभी खुश नहीं रह सकते हैं।फिल्म का नायक अनुभव के आधार पर व्यवहार करना शुरू करता है तो हर बात को अपने अनुभव, तर्क और सवालों से तौलता है।
- फिल्म सिर्फ स्वयं के अनुभव से ही नहीं बल्कि दूसरे के अनुभव से भी सीखने की शिक्षा देती है।
- फिल्म समूह के महत्त्व को भी दर्शाती है।
- पूरी फिल्म दूसरों द्वारा कही-सुनी बातों को नकारती है तथा अपने अनुभवों के महत्व को स्थापित करती है।
इन्हीं बिंदुओं के आधार पर प्रशिक्षक डीब्रीफिंग करेगा।
प्रशिक्षक ध्यान दें
यह फिल्म आपकी पहले से देखी हुई होनी चाहिए। चूंकि यह चरण मनुष्य के अनुभवों से मूल्यों के बनने की विकास-प्रक्रिया को दर्शाता है, तो फिल्म के नायक के माध्यम से यह बात समझाने की सलाहियत प्रशिक्षक को खुद विकसित करनी चाहिए ताकि यह फिल्म समझाइश की प्रक्रिया में एक सहायक सामग्री की भूमिका को साकार कर सके।
प्रशिक्षक डीब्रीफिंग
फिल्म से यह समझ आता है कि जब आदमी बदलता है तो वह हर बात पर सवाल उठाना शुरू कर देता है और वह दूसरों द्वारा कही गई बातों को मानने से भी इंकार कर देता है। वह केवल अपने अनुभवों पर ही अडिग रहता है, लेकिन एक बिंदु पर जा कर वह व्यक्ति दूसरे के अनुभव को भी मानना शुरू कर देता है। इसलिए हम कह सकते है कि अपने अनुभवों और दूसरे के अनुभवों से मिलाकर ही ज्ञान अर्जित किया जा सकता है।
इसे सूत्र के रूप में हम ऐसे समझ सकते हैं
निजी अनुभव – निजी अनुभूति – सामूहिक मूल्य
अनुभव से सीखने की यह प्रक्रिया अंतहीन है। हम अनुभव करते हैं, उससे अनुभूति पैदा होती है और फिर अनुभूति से हम सामान्य मूल्य ग्रहण करते हैं। यह प्रक्रिया जीवनपर्यंत चलती रहती है। अगर अपनी निजी अनुभूतियों को अपने तक ही सीमित रखा गया, तो उसका कोई मोल नहीं होता। ऐसे में अपने सबसे नैतिक आग्रह भी मूल्यविरोधी हो जा सकते हैं। इसीलिए, केवल अनुभव करना और व्यवहार का सबक लेना पर्याप्त नहीं है बल्कि दूसरों के अनुभवों को देखना-समझना और दूसरों से समानुभूति महसूस करना ही हमें समाज के लायक उपयोगी मूल्यों तक पहुंचा सकता है। फिल्म का नायक अत्यंत नैतिक होते हुए भी इस मामले में चूक जाता है।
इस फिल्म से यह समझ आता है कि किसी एक व्यक्ति के अत्यधिक अनुभूति अथवा अनुभव केंद्रित हो जाने का असर उसके परिवार, समुदाय आदि के सभी मूल्यों पर पड़ता है। नायक के अनुभव चूंकि सामान्य मूल्यों तक नहीं पहुंच सके, इसलिए उनके कारण परिवार के अन्य सदस्यों के साथ अन्याय हुआ, उनकी आजादी मारी गई, भाई-भाई में कटुता पैदा हुई और गैर-बराबरी की भावना घर कर गई।
यानी, एक मूल्य कभी अकेले में नहीं मारा जाता। एक मूल्य का ह्रास दरअसल सभी मूल्यों के ह्रास का कारण बनता है।
मूल्यों की अंतर्निर्भरता को हम अगले सत्र में कुछ खेलों के माध्यम से समझने की कोशिश करेंगे।