‘हम भारत के लोग’ अपने संविधान को अंगीकार किए हुए 74 वर्ष पूरे करने जा रहे हैं। 26 नवंबर 1949 को संविधान लागू कर दिया गया, शेष संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ। 26 नवंबर को पहले जहां कानून दिवस के रूप में मनाया जाता था वहीं 2015 से उसे संविधान दिवस के रूप में याद किया जाने लगा है। इस दिन का मुख्य उद्देश्य लोगों को संविधान, मौलिक अधिकारों, कर्त्तव्यों व संवैधानिक मूल्यों के प्रति जागरूक करना है।
संविधान निर्माण एकाएक हो जाने वाली घटना नहीं थी यह एक लम्बी प्रक्रिया का परिणाम था। संविधान को शताब्दियों तक औपनिवेशिक सरकार के विभिन्न अधिनियमों, चार्टरों, कमीशनों, समकालीन वैश्विक घटनाओं और दुनिया के अनेक संविधानों के श्रेष्ठतम निचोड़ ने प्रभावित किया है।
भारत में अंग्रेजी शासन की स्थापना 18वीं शताब्दी में हुई, 1612 में अंग्रेजों ने व्यापार करने के लिए सूरत में पहली कोठी स्थापित कर ली थी। अंग्रेज व्यापारी भारत से मसाले, नील, बहुमूल्य धातुएं, सूती तथा रेशमी वस्त्र और सजावटी सामान नगदी में खरीद कर उसका व्यापार यूरोपीय देशों में करते थे। भारत से केवल निर्यात होने से अंग्रेज व्यापारियों को ज्यादा नगद खर्च करना पड़ता था क्योंकि आयात की ज्यादा जरूरत नहीं थी। इसलिए अंग्रेज व्यापारी चाहते थे कि भारत में राजनैतिक सत्ता पर कब्जा होने से ऐसी नीतियां बनाई जा सकेगी जिससे विदेशी सामानों का आयात अधिक से अधिक हो और निर्यात होने वाले सामानों पर से शुल्क हटाया जा सके।
1764 में बक्सर के युद्ध में अंग्रेजो ने बंगाल के नवाब मीर कासिम, अवध के नवाब शुजाउदौला और मुगल बादशाह शाह आलम (द्वितीय) की संयुक्त सेना को हराकर पश्चिमी बंगाल, बिहार, झारखंड, उड़ीसा, बांग्लादेश (संयुक्त बंगाल प्रांत) की दीवानी (भूमि कर वसूलने का अधिकार) प्राप्त कर लिया। इसी के साथ अंग्रेजी शासन के पांव भारत में जम गये। दीवानी प्राप्त होते ही अंग्रेजों ने भूमि कर तेजी से बढ़ाना शुरू किया। 1766-1767 में अंग्रेजों ने बंगाल में 8.17 लाख पौंड की लगान वसूल की थी जो 1793 में बढ़कर 34 लाख पौंड तक पहुंच गई। ब्रिटिश संसद ने 1773 में रेगुलेटिंग एक्ट पास किया। इस एक्ट के द्वारा कंपनी के कार्यों को नियमित करने के लिए एक अधिनियम (कानून) बना दिया गया।
1764 में बक्सर के युद्ध से 1857 के विद्रोह तक भारत का शासन ईस्ट इंडिया कंपनी के पास था। भारत में सेना और प्रशासन कंपनी के नियंत्रण में था। कंपनी का उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्य को बढ़ाना और अधिक से अधिक कर संग्रह करना था। ईस्ट इंडिया कंपनी ब्रिटिश सरकार को कर अदा करती थी। ब्रिटिश संसद समय-समय पर कुछ अधिनियम के माध्यमों से ईस्ट इंडिया कंपनी की निरंकुशता पर नियंत्रण कर रही थी।
1857 में हुए विद्रोह के बाद कंपनी ने जिस बर्बरता पूर्वक विद्रोह का दमन किया उससे भारतीय जनमानस में आक्रोश पनप रहा था और यह आक्रोश फिर से न शुरू हो जाए उसके लिए अगस्त 1858 में ब्रिटिश संसद ने भारत सरकार अधिनियम 1858 पारित करके भारत में कंपनी के शासन को समाप्त कर भारत के शासन का नियंत्रण ब्रिटिश सम्राट को सौंप दिया। उस समय ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया थी। उनके द्वारा घोषणा की गई जिसमें- भारत में ब्रिटिश क्षेत्रों के विस्तार पर रोक लगा दी गई; भारतीय राजाओं की प्रतिष्ठा और अधिकार का सम्मान किया जाएगा; उनके अधीन क्षेत्रों पर किसी तरह का अतिक्रमण नहीं किया जाएगा और भारतीय लोगों के साथ जाति, धर्म, लिंग और वंश के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जाएगा।
धीरे-धीरे भारतीय हितों को फिर से ब्रिटेन के हितों के अधीन कर दिया गया। 1858 अधिनियम पारित होने के 3 वर्ष बाद भारतीय परिषद अधिनियम 1861 को पारित किया गया। 1857 के विद्रोह के बाद ब्रिटिश संसद को महसूस हुआ कि भारत में शासन चलाने के लिए भारतीयों का सहयोग जरूरी है और शासन में पहली बार भारतीयों को शामिल किया गया।
1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना की गई। शुरू में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को अंग्रेजों के सहायक के रूप में जाना जाता था। 1915 में गांधी जी के भारत आगमन के बाद कांग्रेस में बदलाव आना शुरू हुआ और 1919 में गांधीजी के कांग्रेस का सचिव बनने के बाद यह जनमानस की संस्था बनी। नये नेतृत्व उभर कर आये पटेल, नेहरू, राजेंद्र प्रसाद, सुभाष चंद्र बोस आदि। कांग्रेस ने राजनैतिक संघर्ष के साथ सामाजिक संघर्ष भी शुरू किया और धीरे-धीरे इसकी पहचान राष्ट्रीय स्तर पर हो गई।
भारत में शुरू हो चुके आजादी आंदोलनों का का दमन करने के लिए ब्रिटिश हुकुमत द्वारा 1919 में रोलेट एक्ट (अराजक और क्रांतिकारी अपराध अधिनियम 1919) लाया गया। जिसमें सरकार के खिलाफ किसी गतिविधि में शामिल होने पर यह अधिनियम लागू होता था। इसके खिलाफ गांधी जी ने सत्याग्रह आंदोलन शुरू किया।
1927 में ब्रिटिश संसद ने भारत सरकार अधिनियम 1919 की समीक्षा और संवैधानिक सुधारों के लिए साइमन कमीशन का गठन किया। इस कमीशन में कोई भी भारतीय सदस्य नहीं होने के कारण साइमन कमीशन का विरोध किया गया। दिसंबर 1927 के कांग्रेस अधिवेशन में दो निर्णय किये गये- साइमन कमीशन का विरोध और भारत के संविधान का प्रारूप बनाने के लिए संयुक्त सभा का गठन। समिति ने अगस्त 1929 को अपने संविधान के प्रारूप कि रिपोर्ट ऑल पार्टीज कॉन्फ्रेंस को सौंप दी, जिसमें 22 अध्याय और 87 अनुच्छेद थे। संविधान के इस प्रारूप में मूलभूत अधिकारों- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, कानून के समक्ष समानता, आजीविका, धर्म और विचार की स्वतंत्रता, निशुल्क शिक्षा के प्रावधान किए गए थे। इस प्रारूप के 19 मौलिक अधिकारों में से 10 मौलिक अधिकार भारतीय संविधान का हिस्सा बने। तीन अधिकार नीति निर्देशक तत्वों में शामिल किए गए।
19 दिसंबर 1929 को कांग्रेस अधिवेशन में पूर्ण स्वराज का नारा दिया गया और इसकी मांग की गई। 1931 कराची अधिवेशन में भी पूर्ण स्वराज्य की मांग दोहराई गई। इस अधिवेशन के संकल्प पत्र में कहा गया- संगठन बनाने, व्यवसाय, अभिव्यक्ति, लैंगिक समानता, महिला श्रमिकों को गर्भावस्था में विशेष सुविधा, बाल श्रम का खात्मा, भूमि राजस्व में कमी, मुख्य उद्योग और खनिजों पर राज्य का नियंत्रण किए जाने का प्रावधान किया जाए।
जब यह तय हो गया कि अंग्रेज भारत छोड़ेंगे तब भारत का संविधान बनाने की प्रक्रिया शुरू हुई। भारत की संविधान सभा की पहली बैठक 9 दिसंबर 1946 को हुई और 26 नवंबर 1949 को संविधान बनकर पूरा हुआ। नागरिकता, निर्वाचन और अंतरिम संसद से संबंधित उपबंधों को तथा अस्थाई और संक्रमणकारी उपबंधों को तुरंत 26 नवंबर 1949 को ही लागू कर दिया गया शेष संविधान 26 जनवरी 1950 को लागू हुआ।
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन में भारत की भावी व्यवस्था के प्रारूप तैयार करने में अंग्रेजों द्वारा समय-समय पर लाए जा रहे कानूनों के खिलाफ होने वाले संघर्षों ने काफी हद तक मदद किया। अंग्रेजों द्वारा लाये जा रहे कानूनों से भारतीय जनता के अधिकारों को अधिकाधिक संकुचित करने के साथ उनके शोषण और दमन करने के नए-नए हथकंडे अपनाए जा रहे थे। आजादी के संघर्ष में शामिल जनता और नेता इस शोषण, दमन और संपत्ति हरण करने की बारीकियों को भी समझ रहे थे उनके यह अनुभव संविधान निर्माण में बहुत काम आये। उनकी यह समझ व्यापक हुई कि जनता का शोषण, दमन और संपत्ति हरण करने के क्या-क्या उपाय किए जा सकते हैं। उनको शोषित रखने, उनको उत्पीड़ित करने, उनको उनके अधिकारों से वंचित करने के कौन-कौन से हथकंडे अपनाए जा सकते हैं?
स्वतंत्र भारत के नागरिक का शोषण, उत्पीड़न, संपत्ति हरण, दमन, भेदभाव ना हो इसकी संविधान निर्माण में पूरी पूरी व्यवस्था की गई जिसकी घोषणा संविधान की उद्देशिका में सबसे पहले की गई है।
भारत का संवैधानिक विकास
इस्ट इण्डिया कम्पनी के अंतर्गत | ब्रिटिश राज के अंतर्गत |
रेगुलेटिंग एक्ट 1773 | भारत सरकार अधिनियम, 1858 |
पिट्स इंडिया एक्ट 1784 | भारतीय परिषद अधिनियम, 1861 |
चार्टर अधिनियम 1813 | भारतीय परिषद अधिनियम, 1909 |
चार्टर अधिनियम 1833 | भारत सरकार अधिनियम, 1919 |
चार्टर अधिनियम 1853 | भारत सरकार अधिनियम, 1935 |
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947 |
भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम, 1947
भारत का संविधान बनने के पीछे एक लंबी प्रक्रिया और एक लंबा ऐतिहासिक काल है जिसकी अवधि लगभग 300 वर्ष की है। इस अवधि के बाद भारत का संविधान अस्तित्व में आया। अंग्रेजों से लंबे संघर्ष के बाद भारतीय स्वतंत्रता अधिनियम 1947 लागू हुआ जिसमें पूर्ण रूप से उल्लेख कर दिया गया था कि 15 अगस्त 1947 को भारत और पाकिस्तान दोनों स्वतंत्र राज्य की स्थापना हो जाएगी, प्रत्येक राज्य में गवर्नर जनरल होगा तथा जब तक दोनों राज्य अपने संविधान का निर्माण नहीं कर लेते हैं तब तक वहां पर भारत सरकार अधिनियम 1935 लागू रहेगा।
संविधान सभा का गठन
दुसरे विश्व युद्ध की समाप्ति के आते-आते ब्रिटेन आर्थिक संकट में फस चुका था तो वहीं भारतीय स्वतंत्रता का आंदोलन अपने चरम पर था इन बदलती वैश्विक परिस्थितियों में ब्रिटेन ने 1945 में भारत सम्बन्धी अपनी नई नीति की घोषणा की तथा एक संविधान निर्माण करने वाली समिति बनाने का निर्णय लिया। भारत की स्वतंत्रता के प्रश्न का हल निकालने के लिए ब्रिटिश सरकार ने एक कैबिनेट मिशन को भारत भेजा। 24 मार्च 1946 को कैबिनेट मिशन दिल्ली पहुंचा तथा 16 मई 1946 को अपनी रिपोर्ट को प्रस्तुत किया। कैबिनेट मिशन के तीन उद्देश्य थे- संविधान सभा का गठन करना; भारत का विभाजन; संविधान सभा के सदस्यों का निर्वाचन।
कैबिनेट मिशन की सिफारिश के आधार पर संविधान सभा में कुल सदस्यों की संख्या 389 निर्धारित की गई, जो निम्न प्रकार थी-
- ब्रिटिश भारत से 292 सदस्य
- चीफ कमिशनरी से 4 सदस्य
- देशी रियासतों से 93 सदस्य
मिशन की सिफारिश पर संविधान सभा के निर्माण के लिए जुलाई 1946 में वयस्क मताधिकार के आधार पर अप्रत्यक्ष रूप से चुनाव सम्पन्न हुए जिसमें प्रांतीय विधान मंडलों से 296 सदस्य निर्वाचित हुए इनमें कांग्रेस के 208, मुस्लिम लीग के 73 तथा अन्य पार्टियों के 7 एवं निर्दलीय प्रत्याशियों को 8 सीटें मिली।
भारत पाकिस्तान बंटवारे के बाद कुल सदस्यों (389) में से भारत में 299 ही रह गए। जिनमें 229 चुने हुए थे। वहीं 70 मनोनीत थे। जिनमें कुल महिला सदस्यों की संख्या 15, अनुसचित जाति के 26, अनुसूचित जनजाति के 33 सदस्य थे।
संविधान सभा की प्रथम बैठक दिल्ली में 9 दिसंबर 1946 को हुई जिसमें 207 सदस्यों ने भाग लिया एवं सभा के अस्थाई अध्यक्ष के रूप में सच्चिदानंद सिन्हा को चुना गया। जेबी कृपलानी तत्कालीन राष्ट्रीय कांग्रेस के अध्यक्ष थे जिन्होंने डॉ सच्चिदानंद सिन्हा का नाम अध्यक्ष पद के लिए प्रस्तावित किया एवं सरदार वल्लभ भाई पटेल ने इसे अनुमोदित किया संविधान सभा के प्रथम अधिवक्ता डॉक्टर सर्वपल्ली राधाकृष्णन थे।
संविधान सभा की दूसरी बैठक 11 दिसंबर 1946 को हुई इसमें डॉ राजेंद्र प्रसाद को संविधान सभा का स्थाई अध्यक्ष चुना गया एवं संविधान सभा की तीसरी बैठक 13 दिसंबर 1946 को हुई जिसमें पंडित जवाहरलाल नेहरू ने उद्देश्य प्रस्ताव पेश किया और इसी के साथ संविधान के निर्माण का कार्य शुरू हुआ। संविधान सभा के उपाध्यक्ष एच सी मुखर्जी थे।
संविधान के निर्माण हेतु विभिन्न समितियों का गठन किया गया जो कि निम्न प्रकार है-
- संघ शक्ति समिति- पंडित जवाहरलाल नेहरु
- अल्पसंख्यक और मौलिक अधिकार समिति- सरदार वल्लभ भाई पटेल
- संघ संविधान समिति- जवाहर लाल नेहरू
- झंडा समिति- जेबी कृपलानी
- कार्य संचालन समिति- केएम मुंशी
- तदर्थ समिति- एस वर्धा
- प्रांतीय संविधान समिति- सरदार वल्लभ भाई पटेल
- प्रारूप समिति- डॉक्टर भीमराव अंबेडकर
- राष्ट्रध्वज संबंधी तदर्थ समिति- डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद
प्रारूप समिति का गठन 29 अगस्त 1947 को हुआ जिसका अध्यक्ष डॉक्टर भीमराव अंबेडकर को बनाया गया, जिनका संविधान सभा में चयन पश्चिम बंगाल से हुआ था। इस समिति में 7 सदस्य थे। प्रारूप समिति के उपाध्यक्ष के एम मुंशी थे। प्रारूप समिति की पहली बैठक 30 अगस्त 1947 को हुई। संविधान के प्रारूप पर 114 दिन बहस हुई। भारत का संविधान 2 वर्ष 11 महीने 18 दिन के निरंतर परिश्रम के बाद जनता के सामने आया।
संविधान सभा की अंतिम बैठक 24 जनवरी 1950 को हुई जिसमें संविधान सभा के कुल 284 सदस्यों ने संविधान पर हस्ताक्षर किए। इस दिन डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को राष्ट्रपति नियुक्त किया गया संविधान सभा में कुल 12 महिलाओं ने भाग लिया लेकिन 8 महिलाओं ने ही संविधान पर हस्ताक्षर किए।
आजादी के बाद संविधान निर्माण प्रक्रिया में संविधान सभा इस बात से पूर्ण रूप से सहमत थी कि अंग्रेजों द्वारा भारतीयों पर किये गए अमानवीय अत्याचार, भेदभाव, जातिवाद, शोषण, उत्पीड़न, धार्मिक दंगे, सम्पत्ति हरण, मनमाने राजस्व कर वसूली आदि ने देश की एकता, आर्थिक दशा, उनकी गरिमा और उनका आपसी विश्वास छिन्न-भिन्न कर दिया है। जिनको वापस लाना संविधान सभा की सबसे महत्वपूर्ण और पहली शर्त है। संविधान सभा इस बात को भी समझ रही थी कि अंग्रेजों ने भारतीय जनता के मौलिक अधिकारों का हनन करके ही उन्हें आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक रूप से दीन-हीन अवस्था में पंहुचा दिया है। संविधान में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था किये बिना देश का नागरिक अपना गरिमामय जीवन नहीं व्यतीत कर सकता है और इसकी सुरक्षा करना राज्य की जिम्मेदारी होगी। आजाद भारत को गरीबी, जतिवाद, छुआछूत, आर्थिक और लैंगिक असमानता, धार्मिक वैमनष्यता इत्यादि विरासत में मिली थी। समाज से यह उम्मीद नहीं थी कि वह स्वत: इस अमानवीय व्यवहारों को त्याग देगा। इसलिए देश के नागरिकों के मौलिक अधिकारों की स्थापना के लिए राज्य की भूमिका को जरुरी माना गया। इसको संवैधानिक रूप देना इसलिए भी आवश्यक माना गया कि आने वाली सरकारों की कार्य प्रणाली और राजनैतिक प्रक्रिया में मौलिक आधिकारों की उपेक्षा न हो सके। संविधान सभा के लिए मौलिक अधिकार कितना महत्वपूर्ण था यह इस बात से पता चलता है कि संविधान सभा के संचालन के व्यापक नियम बनाने के बाद जिस विषय पर परामर्श समिति ने सबसे पहली रिपोर्ट पेश की वह विषय मौलिक अधिकार था।
भारतीय संविधान की प्रस्तावना – संवैधानिक मूल्य
भारत का संविधान ‘प्रस्तावना’ से प्रारंभ होता है। प्रस्तावना में संविधान के आदर्श, उद्देश्य तथा मौलिक नियम अन्तर्निहित अथवा समाहित हैं। संविधान की प्रस्तावना ने, देश के भाग्य को निश्चित, समुचित तथा व्यवस्थित आकार देने में अत्यधिक महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। संविधान के प्रावधनों की व्याख्या करने में प्रस्तावना की मार्गदर्शक के रूप में भूमिका महत्वपूर्ण है। जिन मूल्यों ने स्वतंत्रता आंदोलन कि प्रेरणा दी वही मूल्य भारतीय लोकतंत्र के आधार बने तथा इन्हें भारतीय संविधान कि प्रस्तावना में शामिल किया गया। संविधान कि सभी धाराएं इन्हीं मूल्यों को हासिल करने के अनुरूप बनी है। संविधान कि शुरुआत बुनियादी मूल्यों की एक छोटी सी उद्देशिका के साथ होती है। इसे ही संविधान कि प्रस्तावना या उद्देशिका कहते है।
आइये हम अपने संविधान की प्रस्तावना को बहुत सावधानी से पढ़े और उसमें आए संवैधानिक मूल्यों को समझे-
हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्त्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को:
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए,
तथा उन सब में,
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित कराने वाली, बंधुता बढ़ाने के लिए,
दृढ़ संकल्पित होकर अपनी संविधान सभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई॰ (मिति मार्ग शीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।
संविधान की प्रस्तावना के संदर्भ में
संविधान की प्रस्तावना सभी नागरिकों को समानता, स्वतंत्रता और न्याय दिलाने का वादा करती है। भारतीय संविधान में दिए गये मौलिक अधिकार इन वादों को व्यावहारिक रूप देते है। यही संवैधानिक मूल्य सरकार के किसी भी कानून और फैसले के मुल्यांकन और परीक्षण का मानक भी तय करते है। इनके सहारे परखा जा सकता है कि कौन कानून, कौन फैसला अच्छा या बुरा है।
संविधान की प्रस्तावना राष्ट्र का विजन (दृष्टिकोण) और मिशन (उद्देश्य) का कथन होता है। यह राष्ट्रीय आदर्श और मूल्य को हासिल करने की प्रणाली की स्थापना करता है। यह वैसा ही है जैसे किसी संस्था में शामिल होने पर संस्था के विजन और मिशन से हम परिचित हो जाते हैं उसी तरह भारत के नागरिक के रूप में हमारी स्वयं की भूमिका को समझने के लिए प्रस्तावना महत्वपूर्ण है।
संविधान की प्रस्तावना में जब यह घोषणा करते हैं कि “हम भारत के लोग” तब इसका मायने हैं कि स्वतंत्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व वाले समाज की जिम्मेदारी हम से शुरू होती है। प्रत्येक नागरिक के लिए अपनी व्यक्तिगत जिंदगी, परिवार और उसके आसपास के माहौल में समानता, स्वतंत्रता और न्याय सुनिश्चित करने के लिए सक्रियता से काम करना अनिवार्य है। समानता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुत्व हमारे प्रमुख संवैधानिक मूल्यों के रूप में स्थापित किए गए हैं, यह मूल्य मूलभूत मानवीय मूल्य है। यह हमें शक्ति प्रदान करते हैं और हमें इंसानियत से गहराई तक जोड़ते हैं। इनके नहीं रहने या इनका उल्लंघन होने पर हम कई मायने में हीनता का अनुभव करते हैं। यह मूल्य बेहद मौलिक है इन्हें हमेशा बनाए रखना होगा क्योंकि आज भी हम अन्याय और असमानता से पूरी तरह मुक्त नहीं हो पाए हैं। संविधान की प्रस्तावना में इन मूल्यों के होने का मतलब है कि एक राष्ट्र के रूप में हम इन मूल्यों के साथ चलेंगे और इसे हमेशा बनाए रखेंगे। कानून निर्माण और व्यवस्था में हम इन मूल्यों को अंततः स्थापित करेंगे और एक नागरिक के रूप में हम इन्हें अपने और अपने आसपास के लोगों के जीवन में बनाए रखेंगे।
संविधान की प्रस्तावना आजादी की घोषणा करती है जिसे भारत के लोग सभी नागरिकों के लिए सुरक्षित रखना चाहते हैं और यह बुनियादी किस्म की सरकार और राजव्यवस्था की भी घोषणा करती है जिसकी स्थापना की जानी है। जिसमें लैंगिक, आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक गैर बराबरी न हो, धर्म, जाति, गरीबी, लिंग के आधार पर शोषण न हो। बच्चों, महिलाओं, किसानों, मजदूरों, वंचित समुदाय को गरिमामय जीवन जीने का हक मिले। पर्यावरण संरक्षण, संसाधनों का समान बटवारा हो। अंधविश्वास, रूढ़िवादिता से मुक्त होकर वैज्ञानिक दृष्टिकोण को बढ़ावा मिले। ऐसी व्यवस्था का निर्माण और माहौल हो जिसमें विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका अपनी जिम्मेदारी ईमानदारी से निभाएं।
आगे बढ़ने से पहले एक बार संविधान की प्रस्तावना में सम्मिलित/उल्लेखित मुख्य शब्दों जैसे- संप्रभु, समाजवाद, पंथनिरपेक्षता, लोकतंत्र, गणराज्य, न्याय, स्वतंत्रता, समानता, बंधुता, मानवीय गरिमा तथा राष्ट्र की एकता एवं अखण्डता, संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं इत्यादि के अर्थ को समझ लेते हैं-
सम्प्रभु : संविधान की प्रस्तावना में भारत को एक ‘‘सम्प्रभु, पंथनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक गणराज्य’’ घोषित किया गया है। सम्प्रभु होने का अर्थ यह है कि भारत को पूर्ण राजनीतिक स्वतंत्रता है तथा सर्वोच्च सत्ता इसके पास है। अर्थात् भारत में आन्तरिक तौर पर एक स्वतंत्र सरकार है जो लोगों द्वारा चुनी जाती है तथा बाह्य दृष्टि से पूरी तरह स्वतंत्र है। यह बिना किसी हस्तक्षेप (किसी देश या किसी व्यक्ति द्वारा) अपने बारे में निर्णय लेने के लिए स्वतंत्र है। साथ ही, देश के अन्दर भी कोई इसकी सत्ता को चुनौती नहीं दे सकता। सम्प्रभुता की यह विशेषता हम लोगों को अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय में एक राष्ट्र की तरह अपना अस्तित्व बनाए रखने का गौरव प्रदान करती है।
समाजवाद : हम लोग यह जानते है कि सामाजिक तथा आर्थिक असमानताएँ भारतीय समाज में अन्तर्निहित हैं। यही कारण है कि समाजवाद को एक संवैधानिक मूल्य माना गया है। इस मूल्य का उद्देश्य सभी तरह की असमानताओं का अन्त करने के लिए सामाजिक परिवर्तन को बढ़ावा देना है। हमारा संविधान सभी क्षेत्रों में योजनाबद्ध तथा समन्वित सामाजिक विकास को सुनिश्चित करने के लिए सरकारों तथा लोगों को निर्देश देता है। यह कुछ हाथों में धन तथा शक्ति के केन्द्रीयकरण को रोकने का निर्देश भी देता है। संविधान के मूल अधिकारों तथा राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों के अध्यायों में असमानताओं को दूर करने से सम्बन्धित विशिष्ट प्रावधान हैं। 1976 में 42वें संविधान संशोधन द्वारा शामिल किए जाने से पूर्व यह नीति निर्देशक तत्वों के माध्यम से संविधान में शामिल था। राज्य के नीति निदेशक तत्त्वों के अन्तर्गत किए गए निम्नलिखित प्रावधान समाजवाद के मूल्य को बढ़ावा देते हैं-
‘‘राज्य विशेषतौर पर, आय की असमानताओं को कम करने का प्रयास करेगा और न केवल व्यक्तियों के बीच बल्कि विभिन्न क्षेत्रों में रहने वाले और विभिन्न व्यवसायों में लगे हुए लोगों के समूहों के बीच भी प्रतिष्ठा, सुविधाओं और अवसरों की असमानता समाप्त करने का प्रयास करेगा’’ अनुच्छेद 38(2)
‘‘राज्य अपनी नीति का संचालन विशेष रूप से, यह सुनिश्चित करने के लिए करेगा कि (क) पुरूष और स्त्री सभी नागरिकों को समान रूप से जीविका के पर्याप्त साधन प्राप्त करने का अधिकार हो; (ख) समुदाय की भौतिक सम्पदा का स्वामित्व और नियंत्रण इस प्रकार बंटा हो जिससे सामूहिक हित सर्वोत्तम साधन हो; (ग) आर्थिक व्यवस्था इस प्रकार चले जिससे धन और उत्पादन साधनों का सर्वसाधारण के लिए अहितकारी केन्द्रीकरण न हो; (घ) पुरूषों और स्त्रियों दोनों का समान कार्य के लिए समान वेतन हो” (अनुच्छेद 39)
पंथ निरपेक्षता : पंथ निरपेक्षता का मतलब यह है कि हमारा देश किसी एक धर्म या किसी धार्मिक सोच से निर्देशित नहीं होगा। यह अपने सभी नागरिकों को अपने धर्म को मानने, आचरण करने और प्रचार करने का समान हक प्रदान करता है। साथ ही संविधान धर्म पर आधारित किसी भी तरह के भेदभाव पर सख्त रोक लगाता है। पंथनिरपेक्ष शब्द 42 वें संविधान संशोधन द्वारा प्रस्तावना में सम्मिलित किया गया तथा पंथनिरपेक्षता मूल तत्व संविधान के अनुच्छेद 25 से 28 में समाहित है।
लोकतंत्र : प्रस्तावना लोकतंत्र को एक मूल्य के रूप में दर्शाती है। लोकतंत्र में सरकार अपनी शक्ति लोगों से प्राप्त करती है। जनता देश के शासकों का निर्वाचन करती है तथा निर्वाचित प्रतिनिधि जनता के प्रति उत्तरदायी होते हैं। भारत के लोग इनको सार्वभौम वयस्क मताधिकार की व्यवस्था के द्वारा विभिन्न स्तरों (स्थानीय, विधानसभा एवं लोकसभा) पर शासन में भाग लेने के लिए निर्वाचित करते हैं। यह व्यवस्था ‘‘एक व्यक्ति एक मत’’ के रूप में जाना जाता है। लोकतंत्र स्थायित्व और समाज की निरन्तर प्रगति में योगदान करता है तथा शान्तिपूर्ण राजनीतिक परिवर्तन को भी सुनिश्चित करता है। यह विरोध को स्वीकार करता है तथा सहिष्णुता को प्रोत्साहित करता है। महत्वपूर्ण यह भी है कि लोकतंत्र कानून के शासन, नागरिकों के अधिकारों, न्यायपालिका की स्वतंत्रता, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव तथा प्रेस की स्वतंत्रता के सिद्धान्तों पर आधारित है।
गणतंत्र : भारत केवल लोकतांत्रिक देश ही नहीं बल्कि गणतांत्रिक भी है। गणतंत्र का सबसे महत्वपूर्ण प्रतीक राज्याध्यक्ष, अर्थात राष्ट्रपति का पद वंशानुगत न होकर निर्वाचित है। राजतंत्र में राज्याध्यक्ष का पद वंशानुत होता है। यह मूल्य लोकतंत्र को मजबूत एवं प्रामाणिक बनाता है, जहां भारत का प्रत्येक नागरिक राज्याध्यक्ष के पद पर चुने जाने की समान योग्यता रखता है। इस मूल्य का प्रमुख संदेश राजनीतिक समानता है।
न्याय : कभी-कभी यह महसूस होता कि लोकतांत्रिक व्यवस्था में रहने मात्रा से यह सुनिश्चित नहीं होता कि नागरिकों को पूर्णतः न्याय मिलेगा ही। अभी भी कई ऐसे मामले हैं जहां न केवल सामाजिक एवं आर्थिक न्याय, बल्कि राजनीतिक न्याय भी नहीं मिला है। यही कारण है कि संविधान निर्माताओं ने सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक न्याय को संवैधानिक मूल्यों का स्थान दिया है। ऐसा करके उन्होंने इस बात पर बल दिया है कि भारतीय नागरिक को दी गई राजनीतिक स्वतंत्रता, सामाजिक, आर्थिक, न्याय पर आधारित एक नई सामाजिक व्यवस्था के निर्माण में सहायक होगी। प्रत्येक नागरिक को न्याय मिलना चाहिए। न्यायपूर्ण एवं समतावादी समाज का आदर्श भारतीय संविधान के प्रमुख मूल्यों में एक है। राजनीतिक न्याय सहित आर्थिक और सामाजिक न्याय के उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए नीति निर्देशक तत्व (भाग 4) मौलिक अधिकारों (भाग 3) में विभिन्न प्रावधान किए गए हैं।
स्वतंत्रता : प्रस्तावना में चिंतन, अभिव्यक्ति, विश्वास, आस्था तथ उपासना की स्वतंत्रता को एक केंद्रीय मूल्य के रूप में निर्धारित किया गया है। इन्हें सभी समुदायों के प्रत्येक सदस्य के लिए सुनिश्चित करना है। ऐसा इसलिए जरूरी है क्योंकि व्यक्तियों के स्वतंत्र एवं सभ्य अस्तित्व के लिए आवश्यक कुछ न्यूनतम अधिकारों की मौजूदगी के बिना लोकतंत्र के आदर्शो को प्राप्त नहीं किया जा सकता। प्रस्तावना में वर्णित इन आदर्शों की प्राप्ति के लिए संविधान के भाग 3 में मूल अधिकारों के अंतर्गत प्रावधान किया गया है।
समानता : अन्य मूल्यों की तरह समानता भी एक महत्वपूर्ण संवैधानिक मूल्य है। संविधान प्रत्येक नागरिक को उसके सर्वागीण विकास के लिए प्रतिष्ठा एवं अवसर की समानता सुनिश्चित करता है। एक मनुष्य के रूप में प्रत्येक व्यक्ति का एक सम्मानजनक व्यक्तित्त्व है। इस बात को ध्यान में रखते हुए कि प्रत्येक व्यक्ति इसका पूरी तरह उपभोग कर सके, समाज में तथा देश में हर प्रकार की असमानता पर रोक लगा दी गई है। इससे संबंधित प्रावधान संविधान के भाग 3 और भाग 4 में उल्लेखित है।
बंधुता : प्रस्तावना में भारत के लोगों के बीच भाईचारा स्थापित करने के उद्देश्य से बंधुता के मूल्य को बढ़ावा देने की प्रतिबद्धता को स्पष्ट रूप से अभिव्यक्त किया गया है। इसके अभाव में भारत का बहुलवादी समाज विभाजित रहेगा। अतः न्याय, स्वतंत्रता और समानता जैसे आदर्शो को अर्थपूर्ण बनाने के लिए प्रस्तावना में बंधुता को बहुत महत्व दिया है। बंधुता को चरितार्थ करने के लिए समुदाय से छुआछूत का उन्मूलन मात्र पर्याप्त नहीं। यह भी आवश्यक है कि वैसी सभी साम्प्रदायिक, कट्टरपंथी या स्थानीय भेदभाव की भावनाओं को समाप्त कर दिया जाय, जो देश की एकता के मार्ग में बाधक हों।
व्यक्ति की गरिमा : बंधुता को प्रोत्साहित करना व्यक्ति की गरिमा को साकार बनाने के लिए अनिवार्य है प्रत्येक व्यक्ति की गरिमा को सुनिश्चित किए बिना लोकतंत्र क्रियाशील नहीं हो सकता। यह लोकतांत्रिक शासन की सभी प्रक्रियाओं में प्रत्येक व्यक्ति की समान भागीदारी को सुनिश्चित करती है।
राष्ट्र की एकता और अखण्डता : बंधुता एक अन्य महत्वपूर्ण मूल्य, राष्ट्र की एकता और अखण्डता, को भी बढ़ावा देता है। देश की स्वतंत्रता को कायम रखने के लिए एकता तथा अखण्डता अनिवार्य है। इसीलिए संविधान देश के सभी निवासियों के बीच एकता पर विशेष बल देता है। भारत के सभी नागरिकों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे देश की एकता और अखण्डता की रक्षा अपने कर्त्तव्य के रूप में करें।
प्रस्तावना से दो बाते प्रमुख रूप से निकल कर आती है-
- भारत की राजव्यवस्था संप्रभु, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक एवं गणतांत्रिक वाली व्यवस्था होगी।
- देश के नागरिकों के लिए स्वतंत्रता, समानता, न्याय और बंधुत्व को सुनिश्चित करना राज्य का दायित्व होगा।