संवैधानिक मूल्यों की अवहेलना आए दिन लगातार हमारे समाज में हो रही है। इसके सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक पहलू हैं। एक तो, हमारे समाज के मूलभूत ढांचे में ही असमानता मौजूद है। समाज का यह ढांचा आज भी जाति आधारित पितृसत्तात्मक सामंतवादी सोच पर आधारित है। आज एक ओर जहां अमीर-गरीब के बीच, गोरे-काले के बीच, मर्द-औरत के बीच असमानताएं बढ़ती जा रही हैं वहीं दूसरी ओर असंतोष और क्रोध की लहरें भी फैलती जा रही हैं। सर्वव्यापी संकट का प्रभाव समाज के हर तबके पर नज़र आ रहा है। समाज और देश के स्तर पर भी टूटन, बिखराव और हिंसा जोर पकड़ती जा रही है। घरेलू हिंसा, बलात्कार, हत्या, भेदभाव, समान एवं न्यूनतम मजदूरी, दहेज, कार्यस्थल पर यौन शोषण, इत्यादि मुद्दे प्रमुख हैं जिनके खिलाफ आंदोलन होते रहते हैं।
दूसरी ओर, पूंजी के भूमंडलीकरण तथा उससे जुड़ी हुई निजीकरण और उदारीकरण की प्रक्रियाओं के चलते देश के अंदर विभिन्न वर्गों के बीच असमानता तेजी से बढ़ी है। राज्य की कल्याणकारी भूमिका ही नहीं, बल्कि गरीबों और समाज के कमजोर तबकों के हित में उसकी हस्तक्षेपकारी भूमिका भी उत्तरोत्तर कम होती गई है। इन मसलों से संवैधानिक मूल्य सबसे ज़्यादा प्रभावित हो रहें हैं तथा आगे भी होने वाले हैं। अब संविधान बदलने की भी बातें परवान चढ़ाई जा रही हैं।
मोटे तौर पर कुछ बिंदु गिनाए जा सकते हैं जो बताते हैं कि संवैधानिक मूल्यों पर केंद्रित इस प्रशिक्षण पुस्तिका की जरूरत क्यों है।
- समाज में बढ़ती आर्थिक असमानता
- अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हनन
- धार्मिक सह-अस्तित्व को संकट
- संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता का पतन
- राज्य द्वारा धार्मिक बहुसंख्यकवाद का घोषित अंगीकार
उपर्युक्त संदर्भ में संवैधानिक मूल्यों की समाज में जरूरत ही इस प्रशिक्षण मैनुअल की जरूरत को अपने आप पुष्ट करती है। इसके बावजूद, समस्या यह है कि मूल्य जैसी सूक्ष्म चीजों पर प्रशिक्षण देना और एक आजमाये हुए खाके के भीतर लोगों के बीच काम करना कठिन है क्योंकि ऐसा कोई खाका सहज उपलब्ध नहीं है। यह प्रशिक्षण मैनुअल उसी कमी को पूरा करता है।